2019 आम चुनाव : राह आसान नहीं राजग की

Last Updated 26 Dec 2018 05:02:01 AM IST

चाणक्य और महाबलि की छवि वाले अमित शाह और नरेन्द्र मोदी किस तरह एनडीए के एक जूनियर पार्टनर लोक जनशक्ति पार्टी के सांसद चिराग पासवान के दो ट्विट से डर गए और फिर किस तरह, किस जल्दबाजी में उनकी मर्जी की सीटें, संख्या और गठबंधन का फैसला हुआ, यह शीर्ष राजनीति की मजबूरियां दिखाने के साथ पासवान परिवार के उस राजनैतिक कौशल को भी दिखाता है, जिसे लालू प्रसाद यादव रामविलास जी का मौसम विज्ञान कहते हैं।


2019 आम चुनाव : राह आसान नहीं राजग की

चिराग इन्हीं रामविलास पासवान के पुत्र हैं, जो 1996 से लगातार केंद्र में मंत्री बने रहने का रिकॉर्ड बनाए हुए हैं। भले सरकार किसी की भी हो। अटल जी, मनमोहन सिंह, देवेगौड़ा तथा इंद्र कुमार गुजराल के पास तो दलित नाम से अनेक नेता थे, भाजपा के पास एक भी ढंग का दलित नेता न होना भी उसकी मजबूरी को बढ़ाता है, और पासवान परिवार की मोल-मोलाई करने की शक्ति। अब चिराग राफेल पर जेपीसी, नोटबंदी के फायदे पर सवाल पूछने और राहुल गांधी की तारीफ जैसे मसलों पर क्या करेंगे, पर उनके इस कदम ने साबित कर दिया कि भाजपा और मोदी चाहे जितने इंच का सीना दिखाएं, अंदर से आतंकित ही हैं, और मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ की हार ने एनडीए के सहयोगियों का सीना चौड़ा किया है। सही है कि रामविलास पासवान और लोजपा के आगे झुककर भाजपा ने बिहार एनडीए को तो मजबूत किया है, लेकिन उससे भी अधिक लाभ यह लिया है कि अपनी साफ खुलती दरारों को ढंगा है। बिहार में ही कोइरियों के नेता उपेन्द्र कुशवाहा काफी समय से हां-ना करते-करते आखिर में एनडीए और सरकार से निकल कर बिहार के विरोधी महागठबंधन में जा शामिल हुए थे। उधर उत्तर प्रदेश में भी ओम प्रकाश राजभर उसी मुद्रा में ही हैं। कब तक सरकार और एनडीए में हैं, कोई नहीं जानता। एनडीए तेलुगू देशम और पीडीपी से पहले ही तौबा-तौबा हो चुका है। शिव सेना का भरोसा नहीं है।

चंद्रशेखर राव ने चुनाव जीतते ही पैंतरा बदल लिया है। पासवान भी निकल जाते तो हवा एकदम गड़बड़ा जाती। पासवान को तो राज्य सभा की एक सीट ज्यादा देने से काम चल गया, पर मोदी, अमित शाह को तो अपनी सत्ता बचाने के लिए अभी काफी कुछ चाहिए। उनका ही ज्यादा कुछ दांव पर है। इस समझौते के साथ नीतीश कुमार की जिद भी रह गई और कोई बड़ा या छोटा भाई नहीं हुआ। पर मोदी-शाह की जोड़ी के लिए बिहार में एनडीए को बचाने और ज्यादा से ज्यादा जीत हासिल करने लायक जुगाड़ बना लेने से भी अधिक मुश्किल काम उत्तर प्रदेश में  विपक्षी महागठबंधन को बनने से रोकने का है।
गोरखपुर और फूलपुर और बाद के उपचुनावों में दिखी विपक्षी एकता और उसके नतीजे मोदी-शाह की नींद उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं। पर सपा, बसपा, रालोद, कांग्रेस, राजभर पार्टी, महान दल जैसों का साझा विपक्ष बनना भी आसान नहीं है। कई लोग बसपा के लगातार छिटके दिखने के पीछे आय से अधिक वाले मुकदमों का डर जैसी चीज बता रहे हैं पर मायावती की अपनी महत्त्वाकांक्षा भी कम नहीं है। उस मामले में अखिलेश यादव विपक्षी एकता और कम से कम सपा-बसपा की दोस्ती के लिए ज्यादा साफ दिखाई दे रहे हैं।
और अगर इन दो दलों की दोस्ती भी हो गई तो सांप्रदायिकता का तूफान खड़ा किए बिना भाजपा को मुश्किल होगी। और जो चीज सारे ओपिनियन पोल लगातार दिखा रहे हैं, अगर भाजपा को यूपी में 2014 की तुलना में पचास सीटों का नुकसान हो गया तो मोदी का दोबारा सत्ता में आना असंभव हो जाएगा। मोदी और शाह परदे के पीछे से चाहे जो चाल चलें, उन्हें बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में खुले सौदे से कुछ दे-लेकर समझौता करने और अपना घर बचाने वाली सुविधा नहीं है। और राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ तथा गुजरात में सीटें घटने का साफ लक्षण देखकर (इसका एक कारण इन राज्यों की लगभग सारी सीटों पर भाजपा का कब्जा भी है) उसे ज्यादा बेचैनी लगती होगी। बिहार में भले ही नीतीश कुमार के पाला बदलने से भाजपा को लाभ दिखता है पर वहां भी चालीस में से इकत्तीस सीटें जीत पाना मुश्किल ही है। इस बार यादव, मुसलमान और दलितों के एक हिस्से का जैसा ध्रुवीकरण दिखता है, वैसा मंडल वाले दौर में भी नहीं था। और कुशवाहा, मुकेश साहनी तथा मांझी के आने से सारे गैर-सवर्णो को भी एक संदेश जा रहा है। ऐसे में विपक्ष अपना दांव कैसे खेलता है, इस पर भी काफी कुछ निर्भर करेगा। पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली में भी उसके लिए 2014 को दोहराना असंभव ही है।
दक्षिण में भी बाकी राज्यों में उसे खास जमीन नहीं मिली है पर कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के साथ आने से उसकी मुश्किलें बढ़ गई हैं। सो, उसके लिए अब ले-देकर ओडिशा और पश्चिम बंगाल से ही उम्मीदें रह गई हैं। यहां वह बहुत मेहनत कर रही है। पर प. बंगाल में वह कितना आगे जा पाएगी यह भरोसा उसे भी नहीं है। कभी मुसलमानों को पटाने, तो कभी घोर सांप्रदायिक लाइन लेने की दुविधा के बीच ममता बनर्जी, कांग्रेस और वाम दलों की साफ दिखती सहमति से भी उसे मुश्किल है। ओडिशा में उसने मुख्य विपक्ष की जगह ले ली है, पर राज्य का मन नवीन पटनायक से भर गया हो, इसके लक्षण भी नहीं लगते। जाहिर है कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के लिए अगला आम चुनाव (और दसेक राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी) काफी महत्त्वपूर्ण होने जा रहा है। उनके पास सारे संसाधन हैं, सारी रणनीति है, पर उनकी मुश्किलें कम नहीं हैं। 
सिर्फ  एनडीए के अंदर से ही उपेन्द्र कुशवाहा, पासवान और राजभर का तूफान नहीं उठ रहा है, भाजपा के अंदर से भी आवाजें उठने लगी हैं। नितिन गडकरी अगर तीन-चार दफे सीधे नेतृत्व पर हमला बोल चुके हैं, तो यह उनकी निजी महत्त्वाकांक्षा भी हो सकती है, और संघ की समांतर रणनीति का हिस्सा भी। सुषमा स्वराज जैसों का चुनाव न लड़ने का फैसला जैसे वक्त पर घोषित हुआ, उसकी राजनीति भी मोदी-शाह के सिर पर होगी। एक व्यक्ति केंद्रित राजनीति या राष्ट्रपति प्रणाली को आप चाहे जितना अच्छा मानें, उसकी साफ सीमाएं भी होती हैं। यह मूर्ति खंडित या दागदार दिखते ही आपके पास बचाव का कोई रास्ता नहीं रह जाता। इंदिरा जी के साथ पहले यह हो चुका है। पर मोदी कम नहीं हैं। एक तो मुश्किल स्थितियों में ही उनकी अकल और शरीर ज्यादा काम करते हैं, और दूसरे वे कोर्स करेक्शन के मामले में भी माहिर हैं। जितने भी सख्त दिखते हों, मौका पड़ने पर उतने ही नरम भी साबित होते हैं। चिराग प्रकरण भी उसका एक अच्छा उदाहरण है।

अरविन्द मोहन


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