मुद्दा : इसलिए अहम हैं किसान
हाल ही में तीन राज्यों के चुनाव में मिली जीत के बाद सत्ता मिलते ही कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने सबसे पहले जिस विषय की ओर अपनी सबसे तेज कार्रवाई की है, वह किसानों की कर्जमाफी रही।
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लोगों को शायद यह भी लग सकता है कांग्रेस अपने घोषणापत्र का वादा पूरा करना चाह रही है। लेकिन घोषणापत्र को ही देख लिया जाए तो उसमें कई सारे चुनावी वादे मौजूद मिलेंगे। ऐसे में केवल किसानों की कर्जमाफी पर ही इतना ध्यान बिना किसी कारण के तो गया नहीं होगा। वैसे कारण बहुत सहज है। आम चुनाव जल्द होने वाले हैं।
कांग्रेस किसानों के मुद्दे पर बीजेपी को घेरना चाहती है। दिखाना चाहती है कि किसानों का भला करने वाली पार्टी है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी किसानों को लुभाने के लिए कुछ नहीं कर रही। इसी बजट में तमाम प्रावधान और योजनाओं के प्रस्ताव उसने रखे हैं। अक्सर प्रधानमंत्री और बीजेपी नेता किसानों की आय बढ़ाने की बात करते नजर आते हैं यानी कुल मिलाकर 2019 का चुनाव किसान और ग्रामीण जनता के ही आस-पास होगा। स्पष्ट हो चुका है। ऐसे में कांग्रेस की राज्य सरकारों का फौरन ही कर्जमाफी करना 2019 की राजनैतिक शतरंज पर चाल चलने सरीखा हो गया है। अब बीजेपी पर दबाव है कि वह क्या करती है। सवाल उठता है कि राजनैतिक रस्साकस्सी में किसान को कितना फायदा मिलने वाला है। क्या वाकई केवल कर्जमाफी जैसी योजनाओं से ही किसान के दुख दर्द दूर हो जाएंगे?
ऐसा भी तो नहीं कि अचानक से कृषि पर ध्यान दिया जाने लगा है, क्योंकि भारत तो कृषि प्रधान देश रहा है। तकरीबन 60 फीसदी आबादी ग्रामीण है। कृषि से जुड़ी है। तो कृषि पर इतनी राजनैतिक उछल-कूद अब क्यों हो रही है। शायद इसका कारण सीधे लाभ पहुंचाकर वोटर को अपने साथ करने की पिछले कुछ चुनावों की सफल रणनीति हो। लेकिन इस सबके बीच किसानों को क्या वाकई फायदा होगा? कारण, समझने की जरूरत है कि किसान की समस्या कर्ज ना चुका पाना नहीं है, बल्कि वह कर्ज क्यों नहीं चुका पा रहा है, यह जानकर उस स्थिति में सुधार करना है। कृषि उपज का मूल्य तो चूंकि एकाधिकारी बाजार और तमाम भोजन उपलब्धता कानूनों के कारण बढ़ाने में सरकारें हिचकती रही हैं क्योंकि फिर तो वास्तविक आंकड़ों के आधार पर मूल्य सूचकांक ऊपर की ओर बढ़ जाएगा। फिर महंगाई भागने लगेगी। तो सरकार बनाने की आस में जुटीं पार्टयिां बजाए कर्जमाफी के आसान रास्ते के कोई आमूल-चूल ढांचे के सुधार का रास्ता क्यों नहीं अपनाती हैं।
मसलन, कृषि में मजदूरी एक बड़ी लागत है। हम 2004-5 से 2018-19 के बीच तुलनात्मक रूप से देखें तो जहां 2004-05 में गेहूं की कीमत लगभग 550 रुपया क्विंटल होती थी, वहीं मजदूरी लगभग 50 रुपये थी, लेकिन आज 2018-19 में गेहूं की कीमत 1840 रुपया क्विंटल के आसपास होने पर मजदूरी भी बढ़कर करीब 350 रूपए हो चुकी है यानी गेहूं की कीमत में वृद्धि करीब तीन गुनी हुई है, और मजदूरी सात गुना बढ़ चुकी है। सीधा अर्थ है कि किसान की मजदूरी लागत में करीब सात गुने की वृद्धि हुई है परंतु उत्पाद मूल्य मात्र तीन गुना बढ़ा है। आगे अगर हम देखें तो किसानों के लिए सबसे जरूरत सिंचाई से लेकर ट्रैक्टर आदि मशीनों से होने वाली जुताई, बोआई और कटाई जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए सबसे बड़ी लागत डीजल की आती है, जिसका मूल्य 2004 की तुलना में तीन गुना के करीब हो चुका है। तमाम रसायनों, कीटनाशकों, यूरिया, डीएपी आदि जरूरी चीजों की कीमतें कई गुना हो चुकी हैं। लेकिन जब फसल की बिक्री की बारी आती है तो किसान केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मन-मसोसकर रह जाता है। किसान की समस्याओं में और भी कुछ दिक्कतें हैं। भंडार-गृहों की कमी, जिसके कारण किसान को आनन-फानन में फसल बेचनी पड़ती है। मंडियों में किसानों का शोषण छिपा नहीं है। कर्ज ना चुका पाने की दिक्कत इन्हीं सब समस्याओं के कारण आती है।
ऐसे में राजनैतिक जमातें 2019 के चुनाव को केवल कर्जमाफी के ही साए में लड़ने की सोच रही हैं, तो कुछ होने वाला नहीं है। देश में जोत सिकुड़ने के कारण एक ही गांव में दो अलग-अलग किसानों के खेत अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के कारण अलग तरह से लागत और व्यवस्था की मांग करते हैं। छोटे किसानों की समस्या को व्यापक सर्वेक्षण कराने के बाद ही दूर किया जा सकता है। लेकिन किसानों का भला करना शायद किसी भी राजनीतिक दल के ऐजेंडे में नहीं है। भले ही कर्जमाफी और मनरेगा कांग्रेस का आविष्कार हैं, लेकिन इनका उपयोग करने में बीजेपी भी पीछे नहीं रही है। अब बाकी बातें तो किसानों को सोचनी हैं कि उनको एक राजनीतिक ताकत बनकर दबाव बनाना है, या किसान जातियां बनकर रह जाना है।
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