सरोकार : समानता को प्रश्रय देने वाली पद्धति से हों विवाह
ज्योतिबा फुले, पेरियार और आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को तोड़ने के लिए ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति को खारिज किया और नई विवाह पद्धतियों की शुरुआत की।
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फुले ने सत्यशोधक विवाह पद्धति, पेरियार ने आत्मभिमान विवाह पद्धति और आंबेडकर ने हिंदू कोड़ बिल में नए तरह की विवाह पद्धति का प्रावधान किया।
फुले ने 24 सितम्बर 1873 को सत्यशोधक समाज का गठन किया। इसके जरिये उन्होंने सत्यशोधक विवाह पद्धति की शुरुआत की। इस विवाह पद्धति में यह माना जाता था कि स्त्री और पुरुष जीवन के सभी क्षेत्रों में समान हैं, उनके अधिकार एवं कर्तव्य समान हैं। किसी भी मामले में और किसी भी तरह से स्त्री पुरुष से दोयम दर्जे की नहीं और न ही स्त्री जीवन के किसी मामले में पुरुष के अधीन है। स्त्री पुरुष जितना ही स्वतंत्र है। फुले ने लिखा कि ‘स्त्री और पुरुष’ दोनों सारे मानवी अधिकारों का उपभोग करने के पात्र हैं। फिर पुरुष के लिए अलग नियम और स्त्री के लिए अलग नियम क्यों? इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा ‘स्त्री शिक्षा के द्वार पुरुषों ने इसलिए बन्द कर रखे थे, ताकि वे मानवी अधिकारों को समझ न पाएं। जैसी स्वतंत्रता पुरुष लेता है, वैसी ही स्वतंत्रता स्त्री ले तो?’
सत्यशोधक विवाह पद्धति का ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति के विपरीत यह मानना है कि कन्या पिता की या किसी अन्य की संपत्ति नहीं है, जिसे वह जिसे चाहे दान करे। सत्यशोधक विवाह पद्धति के तहत बिना लड़की की अनुमति के शादी नहीं हो सकती। जब लड़की-लड़का दोनों सहमत हों तभी शादी होगी। उन्होंने उन सभी ब्राह्मणवादी मंत्रों को खारिज कर दिया, जो विवाह के दौरान पढ़े जाते थे और स्त्री को पुरुषों से दोयम दर्जे का ठहराते थे। संस्कृत के मंत्रों की जगह मराठी में नए मंत्रों की रचना की ताकि वर-वधू आसानी से समझ सकें और जिनमें दोनों के समान अधिकारों और कर्तव्यों की चर्चा की गई थी। इस विवाह पद्धति में से ब्राह्मण-पुरोहित रूपी बिचौलिए को हटा दिया गया था।
पेरियार इरोड वेंकेट रामासामी ‘पेरियार’ ने ब्राह्मणवाद के विनाश और शू्द्रों-अतिशूद्रों, महिलाओं एवं द्रविड़ समाज के सम्मान के लिए आत्मसम्मान आंदोलन चलाया। इस आत्मसम्मान आंदोलन के तहत ही उन्होंने एक नई विवाह पद्धति का चलन किया, जिसे उन्होंने आत्मभिमान विवाह पद्धति का नाम दिया। इस विवाह पद्धति की विशेषताएं बताते हुए ललिताथारा कहती हैं-‘पेरियार ने 1929 में आत्माभिमान विवाह (सेल्फ-रिस्पेक्ट मैरिज) की जिस अवधारणा का विकास किया, वह एक अनोखा मास्टर स्ट्रोक था। यह अवधारणा विवाह को दो व्यक्तियों के बीच एक ऐसे समझौते के रूप में देखती थी, जिसमें जाति, वर्ग या धर्म के लिए कोई जगह न थी। न ही इसमें किसी पुरोहित की जरूरत थी। इस पद्धति से विवाह के लिए सिर्फ लड़का-लड़की की रजामंदी चाहिए थी, अभिभावकों की अनुमति की आवश्यकता नहीं थी। इसमें विवाह सदा के लिए पवित्र बंधन न होकर दो समकक्ष व्यक्तियों के बीच समझौता था, जिसमें कोई पक्ष जब चाहे समाप्त कर सकता था। विवाह स्वर्ग में या ईश्वर द्वारा नहीं वरन धरती पर दो व्यक्तियों द्वारा परस्पर सहमति और समझौते से निर्धारित किए जाते थे। आत्माभिमान विवाह के मूल में यह बात थी कि स्त्री-पुरुष दोनों पूरी तरह समान हैं।’
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