मीडिया : नकल की नकल की नकल
एक के बाद एक तीन बेहद महंगी शादियां प्रसारित हुई। एक इटली में हुई, दो हिंदुस्तान में हुई। इटली वाली शादी इस कदर प्राइवेट रही कि चैनल अंदर घुसकर दर्शन तक न कर पाए।
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जब जोड़ा वापस आया तो सात दिन तक सिर्फ रिसेप्शन चले। उपेक्षित और अपमानित चैनल फिर भी ‘राजा की आएगी बरात’ गाते रहे! यही बात दूसरी शादी में दिखी जो राजस्थान के एक महल में हुई। यहां भी मीडिया की नो एंट्री ही रही। इतने पर भी चैनल दूल्हे-दुल्हन की तस्वीरें दिखाते रहे। वही कि ‘राजा की आएगी बारात’! वही बैंड बाजा बारात। तीसरी शादी दो अरबपतियों की संतानों की थी। यह इस सीजन की ही नहीं बाकी सीजनों की भी सबसे महंगी शादी थी। सुनते हैं कि इसमें सात सौ करोड़ रुपये खर्च हुए। निमंतण्रपत्र ही तीन लाख का बताया गया। यह भी राजस्थान के एक महल में हुई। यहां एक बड़ी अमेरिकी राजनेता मेहमान थीं, तो हॉलीवुड की एक गायिका भी आई और बॉलीवुड वाले सभी नामचीन हीरो-हीराइनें तो थे ही। इनको जम के नचाया गया।
वही गाने, वही नाच, वही सीन जो फिल्मी सेटों में दिखते रहे। वही जो इन हीरो-हीराइनों ने बनाए। जिन गानों पर गली के बाराती बेसुध होकर नाचा करते हैं, उन्हीं गानों पर हीरो-हीरोइन नाचते रहे और नाच आए न आए। सेठ लोग भी नाचते रहे।
हम सोचते रहे कि ये कुछ नया करेंगे, लेकिन महंगे ग्लैमर के अलावा कुछ नया न दिखा जबकि ये सारे कला क्षेत्र के जाने-माने नाम थे। लगता है कि आजकल जीवन जिया नहीं जाता। हर वक्त परफॉर्म किया जाता है। शो बनाकर दिखाया जाता है, और यह ध्यान रखा जाता है कि सीन में कोई कमी न रहे। यह एक प्रकार का ‘आत्मोपभोग’ है। ‘सेल्फ कंजप्शन’ है, हमारा सीन। हमीं ने बनाया और हमीं ने खाया। अपना प्रोडक्शन अपना कंजप्शन। हमारे ही सीन जिनसे हमने पैसा कमाया और उन्हीं को फिर से बनाया, उसे ही रिकॉर्ड कराया और फिर से उसे ही बेचा।
इतना पैसा और जरा भी मौलिकता नहीं। सब एक दूसरे की कॉपी-कॉपी की कॉपी। यही चलता है। जो लोग हर वक्त कैमरों के आगे रहते हैं, हर वक्त खबरें बनाते हैं। हर वक्त फिल्मों में दिखते हैं, जो आये दिन अपनी फिल्में रिलीज करते हैं सौ, दो सौ, तीन सौ, चार सौ करोड़ कमाते हैं, और गरीबी की बातें करते हैं वे जब अपने जीवन में आते हैं, तो भी उसी से काम चलाते हैं, जो उनने फिल्मों में किया है। उनकी कल्पना शक्ति उससे आगे सोचती ही नहीं। माने जिदंगी भी एक फिल्मी सेट है, जिसे किसी सेट डिजाइनर ने तैयार किया है, और कोई पटकथा है, जिसे किसी ने लिखा है, और आपको सिर्फ इतना करना है कि एक बार उन्हीं स्टेप्स के रिकॉर्डेड गाने पर वही ठुमका लगा दिया जाए।
यही कला है! यही शिल्प है! किसी का बर्थडे हो। शादी की पच्चीस-पचासवीं वषर्गांठ हो, मकान का मुहूरत हो या छब्बीस जनवरी हो या पंद्रह अगस्त, होली या दिवाली हो या कोई और मुहल्ला सेलीब्रेशन हो, सर्वत्र वही सीन, वही गाने, वही आरजे, डीजे, वीजे; वही नाच, वही ठुमके दिखते हैं। आप जब नाचते हैं, तो अपने को उसी हीरो-हीरोइन की जगह रखकर देखते हैं, उसी तरह के वीडियो बनाकर यूट्यूब पर डाल देते हैं, और इस तरह आप भी उनकी नकल कर परफॉर्मर कलाकार आर्टिस्ट हो जाते हैं, लेकिन तब भी तसल्ली नहीं होती। एक असंतोष फिर बेचैन किए रहता है कि काश! मैं एक बार और नाचता-गाता और सचमुच का हीरो हो जाता या हीरोइन हो जाती।
यह सब पहले से ही इतना अधिक अधिक है कि किसी मौलिक कल्पना की न जरूरत महसूस होती है, न उसकी संभावना ही होती है। हम नकल की नकल की नकल की नकल में मस्त रहते हैं। महल है। राजाओं वाली पोशाकें हैं। डिजाइनरों की कल्पना अठारहवीं सदी के मामूली से राजा-रानियों तक ही जाती है, और इस इक्कीसवीं सदी में भी हम एक तुच्छ से सामंत की तरह दिखना चाहते हैं। यही हमारा सांस्कृतिक आदर्श है। यह आदर्श अंग्रेजों के सामने नतमस्तक और उनके वजीफों पर ऐश उड़ाते राज-परिवारों का जीवन है। इक्कीसवीं सदी में हम उसी में घुस जाना चाहते हैं। सेलीब्रेशन का कोई अपना नया मॉडल नहंीं बनाते।
शादी करेंगे। सेलीब्रेट करेंगे। तो फिल्मी हो जाएंगे। असल सोचने की जगह नकल की नकल की नकल हो जाएंगे और एक नकली गर्व से फिर भी गाएंगे कि ‘सुनो गौर से दुनिया वालो चाहे जितना जोर लगा लो सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी..’। करोड़पति हों या अरबपति हों या मामूली आदमी, सबकी सांस्कृतिक हद यही है कि वह किसी घटिया-सी फिल्म की नकल की नकल है।
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