मीडिया : किसान कोई खबर नहीं

Last Updated 02 Dec 2018 07:14:31 AM IST

गए शुक्रवार को दिल्ली में एक बड़ी किसान रैली हुई। देश भर से कोई एक लाख किसान प्रदर्शन करने आए।


मीडिया : किसान कोई खबर नहीं

बीस-बाइस किसान संगठनों ने मिलकर रैली आयोजित की। इनमें किसानों का हमदर्द शहरी मध्य वर्ग भी शामिल हुआ। बहुत से एनजीओ भी शामिल हुए। रैली के जरिए किसानों ने राष्ट्रपति महोदय से अपील की कि किसानों की समस्याओं पर विचार करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाएं जिसमें सिर्फ कृषि के संकट से जुड़े मुददों पर चरचा हो और उनके निदान की सोची जाए। लेकिन अधिसंख्य खबर चैनलों के लिए इतनी बड़ी रैली भी एक बड़ी खबर न बन सकी।
 एनडीटीवी ने जरूर रैली को काफी देर तक  लाइव कवर किया। बाकी चैनलों ने इसे हाशिए पर डाले रखा। हां, एक अंग्रेजी चैनल ने समकालीन कृषि संकट पर आध घंटे की चरचा कराई जिसमें योगेन्द्र यादव ने सटीकता से कृषि नीति की आलोचना की। कुछ विकल्प भी सुझाए। कुछ चैनलों के लिए यह खबर या तो डाई रही या एकाध मिनट की रही। कुछ अंग्रेजी चैनलों के लिए यह रैली खबर देने लायक कम और विपक्ष की खबर लेने का अवसर अधिक रही। ज्यों ही विपक्ष के कई नेता मंच पर एक साथ दिखे, त्यों ही कुछ एंकरों ने इसे ‘महागठबंधन’ समझ कोसना शुरू कर दिया।

जिन चैनलों ने यह न किया वे सिद्धू और राहुल को कूटते रहे। एक चैनल ने तो अमेरिका स्थित कुछ दलित संगठनों, कुछ मुस्लिम अल्पसंख्यकों के  एनजीओ के नेताओं द्वारा भारत में ‘फासिज्म आ चुका है’ जैसे मुद्दों पर चरचा कराके ऐसे तत्वों को जमकर कूटा। अगर कोई कहता है कि ‘फासिज्म आ गया है’ तो उसे खूब कूटिए क्योंकि जनतंत्र की रक्षा आवश्यक है, और आप से बेहतर जनतंत्र का रक्षक कौन है? आपको लगता है कि कुछ ‘देशद्रोही’ तत्व अपने डौले चौड़ा रहे हैं, तो उनको भी कूटिए लेकिन क्या देश के लाखों किसान भी आपकी नजरों में ऐसे खतरनाक ‘देशद्रोही’ बन गए कि उनकी रैली ही ब्लैकआउट कर दी जाए? चैनल स्वयं सोचें कि पिछले पंद्रह दिनों में आपने कौन-कौन-सी खबरों को बड़ी खबर की तरह दिया?
-आपने सबरीमाला को बड़ी खबर बनाया और कई दिन तक दिन-दिन भर कवर किया।
-जब दिल्ली में मंदिर को लेकर संतों का धर्म समागम हुआ तो पूरे दो दिन आप सबके कैमरे  तालकटोरा में लगे रहे। 
-उसके बाद फिर दो-तीन दिन तक आपके कैमरे और रिपोर्टर सब अयोघ्यावासी हो रहे और वहीं जाकर मंदिर बनवाने के लिए ‘रामभक्तों’ से कंपटीशन करते रहे।
-फिर एक पूरे दिन आप करतारपुर कॉरिडोर को कवर करते रहे। यह भी एक धार्मिक खबर थी।
-बीच-बीच में आप पांच राज्यों के चुनावों को परंपरागत तरीके से कवर करते रहे। कौन जीत रहा है? इसकी साप्ताहिक नाप-जोख करते रहे।
-चुनाव की कवरेज से हटते तो आप ‘जाति’, ‘गोत्र’ और ‘असली बरक्स नकली हिन्दू’ की बहसों को लेकर बिजी हो जाते। किस नेता की जाति क्या है? किसका गोत्र कौन-सा है? कौन कितना हिन्दू है? कौन किस प्रकार का हिन्दू है? कौन गरम हिन्दू है? कौन नरम हिन्दू है? और हनुमान जी ब्राह्मण हैं कि दलित या वंचित हैं?-जैसे सवालों में आए दिन उलझे रहे।
-इन्हीं दिनों आपका मन ‘दीप-वीर’ की शादी में खूब रमा। आपने उसे इटली तक से लाइव कवर करने की कोशिश की। चार-पांच दिन आप इसी में लगे रहे। और इन दिनों आप ‘निक-प्रियंका’ की शादी कराने में बिजी हैं।
आपका मन उपरोक्त खबरों में तो रमा लेकिन किसानों की खबरों में जरा भी न रमा। क्यों? क्या आपकी संपादकीय नीति में भारत के ‘अन्नदाता’ की परेशानियों के लिए जगह नहीं है? लगता है कि आपको अपनी चैन भरी दुनिया में ये किसान किसी विघ्न की तरह लगते हैं। कहां गहरे नीले रंग वाले एकदम डिजाइंड सूट और टाई की डिजाइनर पिनें लगाए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते, अपने को ‘देश’ और ‘राष्ट्र’ का पर्याय समझ कर सबकी खबर लेते आपके एंकर और कहां ये गरीब, कर्ज न चुका पाने वाले और निराश होकर आत्महत्या करने वाले मैले-कुचैले किसान! ऐसे गरीब आपके सुंदर सीनों में फिट कैसे हों? वे पराली जलाते हैं। आपकी दिल्ली की हवा खराब करते हैं। वह खुले में शौच करते हैं। पिछले चार बरसों से मीडिया में प्रसारित हजारों  विज्ञापनों ने दिन-रात उनको सिर्फ शर्मिदा किया है, और आपको उन्हें शर्मिदा करना सिखाया है। इस तरह वे आपकी पांच सितारा ऐस्थेटिक्स का मजा खराब करते हैं। उनके रोने को खबर कैसे बनाया जा सकता है?

सुधीश पचौरी


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