मुद्दा : स्वस्थ जीवन पर मिलावट की मार

Last Updated 21 Feb 2018 06:08:18 AM IST

संविधान का अनुच्छेद 21 सिर्फ जीने का अधिकार ही नहीं देता बल्कि सम्मान से पूर्ण स्वस्थ रहने के साथ जीने का अधिकार देता है.


मुद्दा : स्वस्थ जीवन पर मिलावट की मार

लेकिन खाद्य पदार्थों में व्यापक मिलावट और मुनाफाखोरी के चलते हमारा यह अधिकार कितना सुरक्षित है, यह प्रश्न मुंह बाए  खड़ा है. भारत में पौष्टिकता की दृष्टि से खाद्य पदार्थों में दूध का महत्वपूर्ण स्थान है, और उसे संपूर्ण आहार माना जाता है. दूध में मौजूद पानी, ठोस पदार्थ, वसा, लैक्टोज, प्रोटीन, खनिज, वसाविहिन ठोस और कैल्शियम बच्चों को स्वस्थ और मजबूत बनाते हैं, और इसी से देश की भावी पीढ़ी को दिशा मिलती है. वहीं, दूध में मिलावट और मुनाफाखोरी इस दौर की सबसे बड़ी समस्या बन गई है.

देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश दुग्ध उत्पादन को लेकर अग्रणी है, तो मिलावटखोरी को लेकर बदनाम भी है. उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड में दूध और उससे बनने वाले उत्पादों की एक जांच में 88 प्रतिशत सैंपल मिलावटी पाए गए थे. खाद्य एवं आपूर्ति विभाग की इस जांच में और भी कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. राजधानी दिल्ली के आसपास के इलाकों में दूध में मिलावट इतनी जानलेवा पाई गई कि 40 प्रतिशत दूध में कैल्शियम के अंश मिले ही नहीं. यही नहीं, कुछ नमूनों में डिटर्जेंट के अंश भी पाए गए. दूध में सिंथेटिक मिलावट से लीवर खराब हो सकता है, और ऐसे मामलों में इंसान फूड प्वाइजनिंग होकर इंसान मर भी सकता है. स्वास्थ्य का अधिकार जीने के अधिकार का अनिवार्य हिस्सा है. इसे लेकर सरकार प्रारंभ से ही गंभीर रही और स्वतंत्र भारत में स्वस्थ जीवन को सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा गया.

साल 1954 में भारत सरकार ने भोज्य पदाथरे में मिलावट की रोकथाम को लेकर खाद्य पदार्थ मिलावट विरोधी कानून पास किया था. इसमें विभिन्न खाद्य पदार्थों का मूल्यांकन निर्धारित किया गया जो अलग-अलग राज्यों के लिए भिन्न-भिन्न माने गए. बदलते दौर के साथ खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या बढ़ने लगी तो कानून को और पुख्ता करने के प्रयास भी किए गए. 1963-64  के एक्ट में कुछ संशोधन किए गए और इसे कठोर बनाया गया. हरित क्रांति के युग में देश फसलों और सब्जियों के मामले में आत्मनिर्भर हुआ तो स्वास्थ्य के लिए खतरे भी बढ़ने लगे. रासायनिक खाद के उपयोग ने भोज्य पदार्थों को दूषित करना प्रारंभ किया और उसके प्रभावों से दूध भी नहीं बच सका.


1970 में ‘ऑपरेशन फ्लड’ की सफलता से दुनिया में  दूध के उपयोग को लेकर अव्वल स्थान पर आने वाले भारत में दूध की शुद्धता चुनौती बन कर उभरी. हालांकि इस बीच खाद्य पदार्थों को लेकर कड़े कानून को एक बार फिर अमलीजामा पहनाया गया. अप्रैल, 1976 में इसमें एक और संशोधन पारित किया गया, जिसमें कठोर दंड की व्यवस्था थी. कुछ विशेष परिस्थितियों में आजीवन कारावास तक के प्रावधान भी किए गए.


आधुनिक भौतिकवादी युग में तेजी से भागती जिंदगी में दूध और उससे बनी चीजों को संजीवनी माना जाता है. यही नहीं, आम भारतीयों की धारणा रही है कि दूध का नित्य सेवन, स्वस्थ और निरोगी रहने में मददगार साबित होता है. लेकिन मिलावट और मुनाफाखोरी के घालमेल ने दूध के सेवन को लगातार जानलेवा बना दिया है. साल 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से साफ कहा था कि मिलावट की समस्या से निपटने के लिए खाद्य सुरक्षा एवम मानक कानून एफएसएसए में संशोधन और इसे दंडनीय अपराध बनाने सहित अन्य सख्त कदमों की आवश्यकता है. हालांकि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि फूड सेफ्टी एंड स्टैंर्डड एक्ट से बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है. सरकार ने इस कानून को कारगर भी बताया.

गौरतलब है कि खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 में खाद्य पदार्थों में मिलावट करने पर उम्रकैद से लेकर 10 लाख तक जुर्माने का भी प्रावधान है.
राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, करनाल के पूर्व निदेशक डॉ. ए.के.श्रीवास्तव कहते हैं कि मिलावट को रोकने के लिए व्यापारी और ग्राहक, दोनों को जागरूक करने के व्यापक कार्यक्रम चलाने की आवश्कता है, तभी मिलावट के गोरखधंधे को रोका जा सकता है. यकीनन, इस समस्या से निपटने के लिए प्रशासन द्वारा कड़ी  सतर्कता बरतने के साथ ही देश में व्यापक जनजागरण अभियान चलाने की महती जरूरत है.

ब्रह्मदीप अलूने


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