सामयिक : परेशानी में पाकिस्तान

Last Updated 05 Jan 2018 06:29:48 AM IST

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में न तो कोई स्थायी मित्र होता है और न ही स्थायी शत्रुठ यह बात पाकिस्तान और अमेरिका के बीच बदलते हुए रिश्तों के परिप्रेक्ष्य में समझी जा सकती है.


सामयिक : परेशानी में पाकिस्तान

कभी अमेरिका का बहुत करीबी रहा पाकिस्तान आज बदलती हुई भू-राजनीतिक परिस्थितियों में उससे काफी दूर जाता हुआ दिखाई पड़ रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता संभालते ही यह स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान यदि अपनी दोहरी चालों से बाज नहीं आता है तो उसे गंभीर परिणाम के लिए तैयार रहना चाहिए.

अभी पिछले महीने जारी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में भी पाकिस्तान आधारित अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों को अमेरिका, उसके मित्र और सहयोगी देशों की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बताया गया था. लेकिन बहुत कम लोगों को ऐसी उम्मीद थी कि राष्ट्रपति ट्रंप जल्द ही इस रणनीति पर अमल करना भी शुरू कर देंगे. वर्ष 2018 के आरम्भ में ही, विदेशी राष्ट्रों के लिए दिए गए अपने पहले ही संदेश में उन्होंने पाकिस्तान को न केवल आड़े हाथों लिया, बल्कि यह प्रणभी लिया कि वह ‘झूठ और धोखे’ पर आधारित पाकिस्तान-अमेरिका रिश्तों की प्रकृति को बदल देंगे. जनवरी के पहले दिन सुबह-सुबह किए गए अपने ट्वीट में उन्होंने कहा कि ‘अमेरिका ने मूर्खतापूर्ण रूप से पाकिस्तान को पिछले 15 वर्षो में 33 बिलियन डॉलर से अधिक की सहायता राशि दी है, और उसके बदले में उन्होंने हमें झूठ और धोखा दिया है.’

इसके साथ ही राष्ट्रपति ट्रंप ने यह भी कहा कि पाकिस्तान उन आतंकवादियों को अपने घर में पनाह देता है जिन्हें अमेरिका अफगानिस्तान, में बिना किसी खास सहयोग के, निशाना बनाता है. बिना किसी लाग-लपेट के उन्होंने फिर दोहराया कि अब ऐसा नहीं हो सकेगा. इसके पश्चात अमेरिका ने पाकिस्तान को दिए जाने वाले 255 मिलियन डॉलर के सैन्य सहयोग तो तत्काल प्रभाव से यह कहते हुए रोक दिया कि इस तरह की सहायता पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध उठाए जाने वाले कदमों पर निर्भर करेगा.

पाकिस्तान से इस फैसले पर प्रतिक्रिया आना और पाकिस्तान का बचाव करना स्वाभाविक ही था. पाकिस्तानी विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ ने ट्रंप के ट्वीट के एक घंटे के अंदर ही उसका जवाब देते हुए कहा कि पाकिस्तान जल्द ही राष्ट्रपति ट्रंप को न केवल जवाब देगा बल्कि पूरी दुनिया को सच्चाई से अवगत कराएगा. एक समाचार चैनल को दिए गए अपने साक्षात्कार में उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान ने आतंकवाद के विरूद्ध जारी संघर्ष में काफी कुछ किया है और हमने राष्ट्रपति ट्रंप को पहले ही बता दिया है कि अब हम और ज्यादा नहीं कर सकते इसलिए ट्रंप के ‘और नहीं’ का कोई मतलब नहीं है. पाकिस्तानी रक्षा मंत्री खुर्रम दस्तगीर ने एक कदम आगे जाते हुए अपने ट्वीट के माध्यम से कहा कि ‘आतंकवाद विरोधी सहयोगी होने के नाते पाकिस्तान ने पिछले 16 सालों से अमेरिका को मुफ्त में जमीनी और हवाई संचार, सैन्य ठिकाने और खुफिया सहयोग उपलब्ध कराया, जिसकी वजह से अल-कायदा का विनाश किया जा सका और उन्होंने (अमेरिका) हमें आक्षेप और अविश्वास दिया.’

पाकिस्तान की सरकार और राजनेताओं के साथ-साथ पाकिस्तानी सेना, जो परदे के पीछे से पाकिस्तानी सत्ता को नियंत्रित करती है, ने भी राष्ट्रपति ट्रंप के लगातार कड़े होते रुख को गंभीरता से लिया है. यही वजह है कि सेना ने 2 जनवरी को रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय में कोर कमांडर बैठक बुलाई और इस गंभीर मसले पर गूढ़ चर्चा की गई. इसके बाद पाकिस्तान के सिविल और सैन्य पदाधिकारियों ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सुरक्षा समिति (नेशनल सिक्योरिटी कमिटी) की एक महत्त्वपूर्ण बैठक में हिस्सा लिया. बैठक में इस बात पर आम सहमति से यह निर्णय लिया गया कि अमेरिका द्वारा उकसाने के बाद भी पाकिस्तान जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं लेगा और अफगानिस्तान में शांति-प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्ध रहेगा. इस वक्त का सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वास्तव में अमेरिका पाकिस्तान को दी जाने वाली हर तरह की मदद खत्म कर देगा? और यदि ऐसा होता है तो अफगानिस्तान कि शांति-प्रक्रिया पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? पाकिस्तान-अमेरिका संबधों के ऐतिहासिक पक्ष को देखते हुए और वर्तमान समय में बदलते हुए भू-राजनीतिक वातावरण के सूक्ष्म विश्लेषण से यह बात सामने आती है कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के प्रति अपनाए गए इस कड़े रु ख के पीछे दोनों देशों के तात्कालिक राष्ट्रीय हितों में होने वाला टकराव है.

जहां तक पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा दी जा रही आर्थिक और अन्य मदद को खत्म करने का सवाल है वह ज्यादा यथार्थवादी प्रतीत नहीं होता है. इस बात को अमेरिका और पाकिस्तान दोनों बखूबी समझते हैं. यही वजह है कि ह्वाइट हाउस ने मदद पर रोक लगाने की बात के साथ-साथ यह भी जोड़ दिया था कि इस तरह की मदद की नियति भविष्य में आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान द्वारा उठाए गए कदमों पर निर्भर करेगी. गौरतलब है कि वर्ष 2001 में आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष के आगाज के साथ ही अमेरिका ने पाकिस्तान को कई मदों के अंतर्गत आर्थिक व अन्य सहयोग देना प्रारंभ किया.

इन मदों में सबसे पारदर्शी मद है गठबंधन प्रोत्साहन निधि (कोलीशन सपोर्ट फंड) जिसके अंतर्गत सार्वजनिक रूप से घोषित सहयोग राशि का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा आता है. यह राशि अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ जारी युद्ध में खर्च किए गए धन की प्रतिपूर्ति के रूप में देता है. इसके अतिरिक्त कुछ अन्य मद भी हैं, जिनका सार्वजनिक रूप से जिक्र तो नहीं होता लेकिन उसके अंतर्गत पाकिस्तान, खासकर उसकी सेना, को बड़ी मात्रा में आर्थिक सहयोग दिया जाता रहा है.

यदि अमेरिका पाकिस्तान को प्रतिपूर्ति के रूप में दी जा रही राशि को हमेशा के लिए खत्म करता है तो इस बात की पर्याप्त सम्भावना है कि पाकिस्तानी सेना अमेरिकी हितों को चोट पहुंचाने वाले आतंकी संगठनों के खिलाफ हो रही इक्का-दुक्का कार्यवाहियों को बंद कर देगा. जहां तक आतंकवाद को एक रणनीतिक अस्त्र के रूप में उपयोग करने की पाकिस्तानी नीति का प्रश्न है, उस पर अमेरिकी मदद रुकने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि पाकिस्तान की राष्ट्रीय कहानी (नेशनल नैरेटिव)-जो भारत पर केंद्रित है-पर अभी भी वहां की सेना की मजबूत पकड़ है.

डॉ. आशीष शु्क्ला


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