सावित्री फुले : अस्मिता की पहचान कराई

Last Updated 03 Jan 2018 06:00:33 AM IST

सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को नया गांव (बॉम्बे प्रेसीडेंसी) में हुआ था, जो पुणे शहर से 50 किलोमीटर की दूरी पर है.


सावित्री फुले : अस्मिता की पहचान कराई

सावित्री बाई फुले विषमता भरे समाज की खामियों को दूर करने में जीवनपर्यत संघषर्शील और प्रयत्नशील रहीं. शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान मील का पत्थर है जो नवजागरण के उद्देश्यों को पूरा करता है. नवजागरण का मूल्य समाज में फैली हुई रुढ़िवादिता को खत्म करता है और एक नये समाज की स्थापना करती है, जैसा कि हमें 18वीं-19वीं शताब्दी  में सामाजिक और राजनीतिक क्रांति से नया समाज बनने के समय दिखाई पड़ता है.
19वीं शताब्दी की पहचान नये आविष्कार, प्रगतिशील और प्रजातांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के रूप में है. 19वीं शताब्दी के नये अविष्कारक और सामाजिक बदलाव के रहनुमा पूरी तरह से आस्त थे कि आने वाला युग मानवता के लिए अच्छे संदेश लेकर आएगा. फ्रांस की क्रांति की जो मूल धाराएं थी उससे पूरी दुनिया प्रभावित थी और इससे भारत भी अछूता नहीं था. भारत में भी संघर्ष और बदलाव देखा जा रहा था और मानवीय ऊर्जा और प्रतिभा भारत में भी मानवता को प्रतिष्ठित करने की ओर अग्रसर था. सावित्री बाई फुले का मानना था कि तर्क करने की शक्ति ही भारत में प्रगतिशील समाज का निर्माण करेगा तभी भारत जैसा देश जो अंधविश्वास और आस्थाओं से जकड़ा हुआ है आजाद होगा. सावित्री बाई फुले की लेखनी और कार्यशैली ने वर्गीकृत संरचना पर करारी चोट की और सांस्कृतिक वर्चस्व को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

इनका संघर्ष बेहतर मानवतावाद को बढ़ावा देने में एक निवेश है, जो कि भारत को मध्यकालीन व्यवस्था से हटाया और नया आधुनिक समाज बनाएगा.  इनका संघर्ष आने वाले पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत है. इन्होंने पहली महिला स्कूल की स्थापना की जिसने महिलाओं की अस्मिता और उनके अधिकारों को पाने के लिए प्रेरित किया. समानता, आजादी, भाईचारा और मानवता उनके लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहे. उस समय जब महिलाओं को एक वस्तु के रूप में देखा जाता था, ऐसे समय में सावित्री बाई फुले का इन मूल्यों को आगे बढ़ाना अपने आप में ही आने वाले पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत है. फुले समाज के हाशिये के लोगों की आवाज बनी और महिलाओं के प्रति पितृसत्तात्मक समाज में जो दुहरा शोषण होता था उसको खत्म करने की प्रखर आवाज बनीं. फुले हमेशा धर्म-निरपेक्ष शिक्षा की पुरोधा रहीं और उनका मानना था कि समाज में जो विकृतियां हैं, उसे हटाने में शिक्षा का स्थान अहम है. उनके संघर्ष और जुनून ने धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को भारत में स्थापित करने में अहम भूमिका अदा की. बाद में जाकर लार्ड मैकाले (1854) ने इसको भारत की शिक्षा प्रणाली का अहम पहलू माना है. फुले ने शुद्र और अतिशूद्र महिलाओं के हक के लिए एक क्रांतिकारी सामाजिक शिक्षा आरंभ किया. इसके साथ-साथ उन्होंने महार और मंग्गा जाति के लिए भी विद्यालय खोली. उनका यह भी मानना था कि औद्योगिक इकाई और स्कूली शिक्षा में तारतम्य होना चाहिए ताकि बच्चे नये आयाम से परिचित हों, उसे आत्मसात करें और स्वावलंबी बनें. फुले का मानना था कि शिक्षा मनुष्य की रचनाशीलता को बढ़ावा देती है, जिसके कारण मनुष्य नये-नये आयाम की खोज करता है.
उन्होंने सामाजिक आंदोलन को बढ़ावा दिया ताकि जाति व्यवस्था की खामियों को खत्म किया जा सके. फुले ने गर्भवती महिलाओं और शोषित विधवाओं की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया. 1863 ई. में सावित्री बाई फुले ने भ्रूण हत्या से बचाने के लिए ‘मातृ-शिशु गृह’ खोला. उन्होंने सत्य शोधक समाज का भी गठन किया, जिसने दहेज प्रथा को खत्म करने में अहम भूमिका निभाई. उनका आंदोलन विधवा पुनर्विवाह और बाल विवाह के खात्मे के लिए प्रयत्नशील रहा. उनका जीवन और संघर्ष प्रेरणा का असीम स्रोत है. उन्होंने खुद ब्राह्मण विधवा के बच्चे को गोद लिया, उसका पालन पोषण किया और फिर अंतरजातीय विवाह कराया. उनका पूरा जीवन हाशिये पर रहे लोगों के लिए समर्पित रहा. वे समाज में शिक्षा और ज्ञान को आधार बनाकर समाज की कुरीतियों को हटाना चाहतीं थीं. सावित्री बाई फुले की लड़ाई जातीय व्यवस्था में सर्व सत्तावाद और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ रही. इनका योगदान आज भी प्रेरणादायक है और समकालीन भारत में प्रासंगिक भी.

डॉ. सुबोध कुमार


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