रसगुल्ला : पश्चिम बंगाल का मुंह मीठा

Last Updated 22 Nov 2017 03:40:08 AM IST

पिछली 14 नवम्बर को पश्चिम बंगाल के रसगुल्ले को ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) का दर्जा दिया गया.


रसगुल्ला : पश्चिम बंगाल का मुंह मीठा

गौरतलब है कि रसगुल्ले के जीआई दर्जे के लिए ओडिशा और प. बंगाल आपस में सींग भिड़ाए हुए थे. यह मान्यता/अधिकार ज्योग्राफिकल इंडिकेशंस रजिस्ट्री ने प्रदान की. यह संस्था वाणिज्य मंत्रालय के तहत आती है. तमाम जांच-परख के पश्चात किसी उत्पाद को किसी के पक्ष में जीआई अधिकार प्रदान करती है. इससे क्षेत्र विशेष की विरासत को मान्यता मिलने के साथ ही संबद्ध क्षेत्रों की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी संबल हासिल होता है. दार्जिलिंग चाय, हैदराबादी मोतियों, पश्मीना शालों, नागपुरी संतरों आदि को भी इसी प्रकार की मान्यता प्रदान की जा चुकी है.

दरअसल, ओडिशा और प. बंगाल, दोनों पड़ोसी राज्यों ने दावा कर रखा था कि रसगुल्ला उनके यहां पनपा मौलिक मिष्ठान है. यह विवाद पहले पहल उस समय उभरा जब प. बंगाल ने बांग्लार रोसगुल्ला को जीआई दरजा देने के लिए 2015 में आवेदन किया. इस पर ओडिशा ने दावा पेश किया कि रोसगुल्ला या रसगुल्ला पहले पहले उसके यहां बनाया गया था. उसका दावा था कि हजारों साल पहले से पुरी के जगन्नाथ मंदिर में रोसगुल्ला चढ़ाया जाता रहा है. कभी इसके प्रसाद को खीर मोहाना कहा गया तो बाद में पहाला रसगोल्ला कहा जाने लगा. ओडिशा के तर्क के जवाब में प. बंगाल ने दावा किया कि रोसगुल्ला को बागबाजार के कुछ परिवारों ने प्रसिद्ध कर दिया था, जब उन्होंने कोलकाता में उन्नीसवीं सदी में अनेक दुकानें खोल कर अपने तई तैयार इस मिष्ठान को लोकप्रिय बना दिया. पं. बगाल ने अपने दावे के पक्ष में कुछ दस्तावेज भी पेश किए. इनके आधार पर दावा किया कि तत्कालीन गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने इस मिठाई को चखकर इसकी वाहवाही की थी. दोनों राज्यों के बीच खासी दावों-प्रतिदावों के पश्चात फैसला प. बंगाल के हक में गया. बहरहाल, रोचक प्रश्न यह है कि आखिर, ज्योग्राफिकल इंडिकेशंस रजिस्ट्रीय इस नतीजे पर कैसे पहुंची कि रसगुल्ला पहले पहले क्षेत्र विशेष में ईजाद हुआ.

वह भी उस स्थिति में जबकि 1900 तक तो ओडिशा (तत्कालीन उड़ीसा) तत्कालीन वृहत बंगाल (अविभाजित बंगाल) का ही एक हिस्सा था. जीआई बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत की गई एक  व्यवस्था है. इसके तहत किसी उत्पादन के उन गुण विशेष की जांच-परख की जाती है, जो उस क्षेत्र के चलते ही उस उत्पाद विशेष समाहित होते हैं, जहां वह पहले पहल तैयार हुआ था. कह सकते हैं कि उत्पाद विशेष के उत्पत्ति स्थल को यह दरजा महत्त्वपूर्ण बना देता है. साथ ही, उस उत्पाद के साथ एक किस्म की ‘खासियत’ को भी जोड़ देता है. इस तौर-तरीके को उत्पादों के नाम के दुरुपयोग और स्थान विशेष के महत्त्व को हड़पने से रोकने, परस्पर दावों-प्रतिदावों की नौबत न आने देने तथा नक्कालों के तोड़ की गरज से आरंभ किया था.

विश्व व्यापार संगठन को लगा कि उपभोक्ताओं के मन में किसी उम्दा वस्तु के उपभोग के साथ ही प्राय: यह जिज्ञासा उठ खड़ी होती है कि आखिर, वह कहां तैयार हुई या उसकी उत्पत्ति कहां हुई. इस करके संगठन ने ट्रिप्स (ट्रेड रिलेटिड ऑस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी राइट्स)  समझौते के तहत अनुच्छेद 22 को जोड़ा था ताकि क्षेत्रीय विशेषताओं का संरक्षण किया जा सके. यकीनन इस व्यवस्था से विनिर्माताओं को अपने उत्पाद ‘विशेष उत्पाद’ के रूप में बेचने में आसानी हुई है. इस व्यवस्था के उत्पादों के व्यवसायीकरण संबंधी लाभों को ध्यान में रखते हुए भारत ने भी अन्य देशों की भांति इस व्यवस्था को लागू करने के दिशा में पहल की. ज्योग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स (रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन) रूल्स, 2002 लागू किया. बहरहाल, मोती सरीखे रसभरे मुंह में पानी ला देने वाले रसगुल्ला का विवाद राजनीतिक हितों के टकराव को और गहरा गया है.

वाणिज्य मंत्रालय उत्पादों को ज्योग्राफिकल इंडिकेशंस का दरजा देने को तत्पर है, वहीं राज्यों के बीच अपने यहां के ज्यादा से ज्यादा उत्पादों को यह दरजा दिलाने के लिए प्रतिस्पर्धा-सी छिड़ गई है ताकि वे अपनी विरासत को दूसरे की तुलना में श्रेष्ठ बता सकें. जरूरी है कि इस भावना को बढ़ावा दिया जाए कि भारत के किसी भी राज्य में पहले पहल आया कोई भी उम्दा उत्पाद समूचे भारत के लिए गौरव करने का सबब है. ‘क्षेत्रवाद’ बढ़ा तो जीआई अधिनियम का उद्देश्य ही कहीं बिला जाएगा.

रणधीर तेजा चौधरी


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