अयोध्या वार्ता समाधान का पाखंड!

Last Updated 20 Nov 2017 05:20:22 AM IST

अयोध्या से श्री श्री रविशंकर को फिलहाल खाली हाथ लौटना पड़ा है. बातचीत के जरिए अयोध्या विवाद के समाधान की उनकी कथित कोशिश को कम से कम मुख्य दावेदारों की ओर से कोई उत्साहपूर्ण समर्थन नहीं मिला है.


अयोध्या वार्ता समाधान का पाखंड!

एक ओर इस विवाद के सबसे उग्र खिलाड़ी, विश्व हिन्दू परिषद ने ऐसे किसी प्रयास की जरूरत से इनकार किया है, तो दूसरी ओर सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी इस कोशिश में कोई गंभीरता नहीं लगी है, क्योंकि श्री श्री- जैसाकि खुद उन्होंने भी बाद में स्वीकार किया-समाधान का कोई ठोस फार्मूला लेकर नहीं आए थे. लेकिन खबर श्री श्री का खाली हाथ लौटना नहीं है. खबर, उनका इतने ताम-झाम के साथ अध्योध्या पहुंचना है.

इससे ठीक पहले, श्री श्री ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से मुलाकात की थी. इस मुलाकात को श्री श्री की ओर से तो 'शिष्टचार भेंट' बताने की कोशिश की गई थी, लेकिन मुख्यमंत्री ने अयोध्या विवाद के समाधान के उनके प्रयासों का स्वागत किया था, हालांकि इसके साथ ही उन्होंने यह आशंका भी जताई थी कि एक पक्ष-इशारा साफ तौर पर मुस्लिम पक्ष की ओर था-बातचीत के जरिए समाधान के लिए तैयार नहीं होगा. 'एक पक्ष हमेशा बातचीत की मेज से भागता रहा है.' क्या यह विवाद का बातचीत के जरिए समाधान निकालने की किसी गंभीर कोशिश के बजाए, मुसलमानों को ऐसा समाधान न निकलने के लिए दोषी साबित करने का ही मामला नहीं है. इसकी आशंका इसलिए और बढ़ जाती है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद, लखनऊ में श्री श्री ने रामजन्मभूमि मंदिर न्यास के द्वारा आयोजित एक बैठक में भी हिस्सा लिया था, जिसमें एक विहिप को छोड़कर, अयोध्या मुकदमे पक्षकार के निर्मोही अखाड़ा और दिगम्बर अखाड़ा से लेकर, आरएसएस तक के प्रतिनिधि मौजूद थे. यहां तक कि विनय कटियार भी, दोनों पक्षों के बीच बातचीत का दावा करने वाले इस न्यास की बैठक में शामिल हुए थे.

दूसरी ओर इस बैठक में कुछ मुल्ला-मौलवी भी मौजूद थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा खड़े किए गए राष्ट्रीय मुस्लिम मंच और शिया वक्फ बोर्ड की भी मदद से, विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण के पक्ष में कथित 'सहमति' बनाने का जिस तरह का स्वांग केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से किया जाता रहा है, श्री श्री की पहल उसी को और ऊपर के स्तर पर ले जाने की कोशिश लगती है. ये कोशिशें उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के आने के बाद और भी तेज हो गई हैं क्योंकि राज्य में मुसलमान डरे हुए हैं और संघ परिवार को यह लगता है कि इस डर का फायदा उठाकर, उन्हें अयोध्या विवाद में इकतरफा समर्पण करने के लिए तैयार किया जा सकता है. बातचीत के जरिये अयोध्या विवाद का समाधान निकालने की इन संघ परिवार अनुमोदित कोशिशों की यही असली समस्या है. ये कोशिशें बातचीत की कोशिश का स्वांग तो करती हैं, लेकिन इनके पीछे बातचीत के जरिए समाधान की इच्छा कहीं नहीं हैं. उल्टे ये प्रयास तो यह मानकर चलती हैं कि विवादित स्थल पर मंदिर का निर्माण तो स्वयंसिद्ध है, मुद्दा सिर्फ उसके लिए दूसरे पक्ष यानी मुसलमानों से 'सहयोग' हासिल करना है. जाहिर है कि अनावश्यक विवाद की वजह से कटुता बनी रहे, यह सांप्रदायिक सौहार्द के लिए हितकर नहीं है. यहां विकास की दुहाई भी जोड़ी जा सकती है. कहने की जरूरत नहीं है कि बातचीत के जरिये समाधान का यह स्वांग, समाधान तो दूर किसी वास्तविक बातचीत का रास्ता भी नहीं बनाता है.



जाहिर है कि कोई वास्तविक बातचीत तो तभी संभव है, जब दोनों पक्ष कुछ झुककर बीच का रास्ता अपनाने के लिए तैयार हों और वह भी ऐसा रास्ता, जो दोनों पक्षों की जीत भले ही नजर न आए, पर किसी एक पक्ष की जीत और दूसरे पक्ष की हार किसी भी तरह से नजर नहीं आए. इससे कम में, समझौते की कोई वास्तविक और सार्थक बातचीत संभव नहीं है. अयोध्या विवाद को लेकर हुई बातचीतों की असली समस्या यही रही है कि हिन्दू पक्ष, विहिप अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से जिसकी स्वयंभू प्रतिनिधि बनकर बैठी रही है, 'मंदिर वहीं बनाएंगे' से रत्ती भर कम के लिए तैयार ही नहीं था. वास्तव में 1986 में मंदिर का ताला खुलने के बाद, विवाद की गर्मी बढ़ने की पृष्ठभूमि में, अयोध्या-फैजाबाद के जाने-माने बाशिंदों ने विवाद के समाधान के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पहल की थी. एक अयोध्या गौरव समिति और ट्रस्ट का गठन किया गया था, जिसका अध्यक्ष नृत्य गोपाल दास को बनाया गया था, जो बाद में विहिप के रामजन्मभूमि मंदिर न्यास के अध्यक्ष बने, जबकि जाने-माने पत्रकार शीतला सिंह को सचिव बनाया गया था. रामचंद्रदास परमहंस के दिगम्बर अखाड़े में दोनों पक्षों की बैठक में समाधान का फामरूला तैयार किया गया था.

समाधान संक्षेप में यह था कि विवादित स्थल को ऊंची दीवारों से घेरकर, सब की पहुंच से बाहर कर दिया जाए और रामचबूतरे पर मंदिर बनाया जाए. इस समाधान को शुरू में सभी का अनुमोदन हासिल होने के बाद, अंतत: विहिप ने टांग अड़ा दी. जाहिर है कि उनकी असली दिलचस्पी मंदिर निर्माण में नहीं मंदिर निर्माण की राजनीति में और उसे चुनावी तौर पर भुनाने में थी. वही हुआ और उसके बाद फिर कोई बातचीत समाधान के इतने निकट नहीं पहुंच सकी. इस सब को देखते हुए और अयोध्या विवाद अब जिस मुकाम पर पहुंच गया है उसे और खासतौर पर इसके प्रति आम लोगों के रुख को देखते हुए, यही उपयुक्त होगा देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले से, विवादित स्थल का निपटारा हो.

यह इसलिए और भी जरूरी है कि कम से कम अल्पसंख्यक पक्ष, एक इसी तरह से न्याय मिलने की उम्मीद कर सकता है. उसके सभी प्रवक्ता दो-टूक शब्दों में यह कह भी चुके हैं कि अदालत का जो भी फैसला होगा, उन्हें मंजूर होगा. आम तौर पर हिन्दुओं ने भी अदालत के फैसले को स्वीकार करने का मन बना लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी 5 दिसम्बर से अयोध्या विवाद की लगातार सुनवाई का एलान कर रखा है. ऐसे में बातचीत का स्वांग, चीजों को उलझाने का ही काम कर सकता है. इसके पीछे, अदालत का निर्णय कोई भी हो अल्पसंख्यकों को दोषी ठहराने की जो नीयत काम कर रही है, सो अलग.

राजेन्द्र शर्मा


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