सामयिक : चली गई ‘मदर टेरेसा’ फॉ

Last Updated 25 Aug 2017 05:43:13 AM IST

दुनिया के सारे धर्म इस बात पर एकमत हैं कि कोई व्यक्ति अपने कर्मो के बल पर किसी आम इंसान से एक दर्जा ऊपर उठ जाता है.


चली गई ‘मदर टेरेसा’ फॉ

इस कसौटी पर कसें तो जितनी संत भारत की मदर टेरेसा थीं, उतनी ही पाकिस्तान की मदर टेरेसा कहलाने वाली कराची की मशहूर डॉक्टर रूथ फॉ भी थीं, जिनका हाल में 87 साल की उम्र में निधन हो गया. पाकिस्तान में पिछले 29 साल में यह दूसरा मौका था जब किसी का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया. इससे पहले मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल सत्ता इदी को पिछले साल राजकीय सम्मान के साथ दफनाया गया था.

डॉक्टर रूथ फॉ को ‘पाकिस्तान की मदर टेरेसा‘ यूं ही नहीं कहा जाता था. उन्होंने गरीबों और कुष्ठ रोगियों की नि:स्वार्थ सेवा में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी थी. वह मैरी ऐडिलेड लेप्रोसी सेंटर की संस्थापक थीं, जिसने एक दौर में पाकिस्तान में कुष्ठ रोग की भयानक वृद्धि की रोकथाम में अग्रणी भूमिका निभाई थी. माना जाता है कि पाकिस्तान को करीब पांच दशक तक इस भयानक बीमारी से जूझना पड़ा था. तथ्यों के मुताबिक, 1950 से 1996 के बीच कुष्ठ रोग (लेप्रोसी) ने पाकिस्तान को पूरी तरह अपनी जकड़ में ले रखा था. टीबी के अलावा सबसे ज्यादा मरीजों की मौत कुष्ठ रोग के कारण वहां हो रही थी. कुष्ठ रोग एक अभिशाप की तरह देखा जाता है, इसलिए यह एक सामाजिक समस्या के रूप में भी सामने आया था. इस कारण कुष्ठ रोगियों को सामाजिक विलगाव का सामना भी करना पड़ रहा था. लेकिन रूथ फॉ ने संकल्प लिया कि वह इस बीमारी को खत्म करके ही दम लेंगी. इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान की सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से लेप्रोसी को नियंत्रित करने के प्रयास शुरू किए. शरीर को विकृत करने वाली इस बीमारी पर काबू पाना आसान नहीं था क्योंकि इससे बीमार हुए लोगों से उनके परिजन ही किनारा कर लेते थे.

बीमारी के साथ यह सामाजिक उपेक्षा रोगियों पर भारी पड़ रही थी. ऐसे में डॉ. रूथ फॉ इन मरीजों के लिए किसी देवदूत की तरह सामने आई और उन्होंने कई संगठनों के साथ मिलकर कुष्ठ रोग के खिलाफ व्यापक अभियान छेड़ा. अंतत: उनकी कोशिशें रंग लाई और पाकिस्तान में कुष्ठ रोग का एक प्रकार से खात्मा हो गया. इसके लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और आर्मी चीफ ने डॉ. रूथ की सराहना की, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीते, कुष्ठ रोग की संहारकता लगभग खत्म हो गई, डॉ. रूथ को भी तकरीबन भुला दिया गया. मदर टेरेसा से डॉ. रूथ की समानता का एक आधार यह है कि वह भी अपना देश छोड़कर एक पराए मुल्क में मानवता की भलाई के काम में आकर संलग्न हुई. जर्मनी के लाइपजिग शहर में रूथ कातरीना मार्था जन्म एक प्रोटेस्टेंट परिवार में 9 सितम्बर 1929 को हुआ था.

दूसरे विश्व युद्ध में जंग के बाद पूर्वी जर्मनी में सोवियत उपनिवेश ने उनके परिवार को पश्चिमी जर्मनी की तरफ पलायन को मजबूर किया था, जहां 1950 के दशक में युद्ध के विध्वंसकारी रूप को देखने के बाद उन्होंने डॉक्टर बन लोगों की मदद करने का प्रणलिया था. पाकिस्तान में घटित एक घटना ने उनका जीवन मोड़ दिया था. असल में कराची में मरीजों का इलाज करने के दौरान मिट्टी में लोटते हुए आए एक नौजवान ने उन्हें पाकिस्तान में बस जाने को प्रेरित किया था. वह धूल-धूसरित नौजवान जब उनके पास पहुंचा तो करुण स्वर में उसने याचना की कि अब उसके पास डॉ. रूथ से अपना इलाज कराने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है. डॉ. रूथ फॉ ने उसे दिलासा दिया कि वे एक मां की तरह ही उसकी सेवा-सुश्रुषा करेंगी. उस नौजवान के इलाज को पाकिस्तानी जनता ने एक चमत्कार जैसा माना था. डॉ. फॉ ने पूरे पाकिस्तान और अफगानिस्तान का दौरा कर मरीजों का इलाज किया.

निस्संदेह डॉ. रूथ को मदर टेरेसा की तरह चमत्कारी संत नहीं माना गया, लेकिन मानवता के लिए यह जरूरी नहीं है कि किसी व्यक्ति के कर्म चमत्कार के दायरे में आते हों. जेठ की चिलचिलाती दोपहरी में कोई नियम से राहगीरों को पानी पिला रहा है तो यह खुद में किसी चमत्कार से कम नहीं है. यह भी सच है कि कल तक जो बातें पूरी दुनिया को चमत्कार लगती थीं, उनमें से ज्यादातर आज सामान्य तकनीकी और चिकित्सा का हिस्सा बन चुकी हैं. इसलिए किसी को संत घोषित करने के लिए चमत्कार को कसौटी मानने का कोई औचित्य नहीं है.

मनीषा सिंह
लेखिका


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