स्वतंत्रता दिवस : आजादी और जवाबदेही
आजादी की 70वीं सालगिरह पर जब हम आज के भारत के संदर्भ में सोचते हैं, कुछ निहायत मूलभूत प्रश्न हमें घेरने लगते हैं.
स्वतंत्रता दिवस : आजादी और जवाबदेही |
आजादी की पूरी लड़ाई के बीच से हमने अपने लिये भविष्य के कुछ लक्ष्य निर्धारित किये थे और यह संकल्प किया था कि भारतीय समाज के बहुलतावादी चरित्र के अनुरूप हम जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और राज्य के संघीय ढांचे को मजबूत करेंगे. ये हमारे लिये इतिहास की दिशा को तय करने वाले किन्हीं सार्वलौकिक मूल्यों से कम महत्त्व के मूल्य नहीं रहे हैं. और कहना न होगा, इस दिशा में बढ़ने के लिये एक संविधान के माध्यम से हमने जो यात्रा तय की उसकी उपलब्धियां दुनिया के किसी भी औपनिवेशिक और गरीब देश की तुलना में कम नहीं रही है.
पिछली सदी में सत्तर के दशक तक दुनिया के दूसरे देश यह विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि भारत की एकता और अखंडता बनी रह सकती है. भारत के बारे में अमेरिकी नीतियों के मूल में इस देश के बल्कनाइजेशन, अर्थात् यूरोप की तरह कई भागों में बंट जाने की आशंका की जाती थी. पिछली सदी के पचास के दशक में सीआईए ने भारत में सामाजिक तनावों के विषय में कई अध्ययन कराये थे और सत्तर के जमाने असम में उनकी ‘ऑपरेशन ब्रह्मपुत्र’ की योजना खुल कर सामने आई, जब उन्होंने ‘धरती पुत्रों’ के नारे के साथ चली अलगाववादी राजनीति का खुल कर समर्थन किया था. लेकिन तब से अब तक के इन पचास सालों में हमारी राजनीतिक परिस्थितियां इतनी बदल चुकी हैं कि दुनिया का कोई भी देश आज भारत के बारे में बल्कनाइजेशन के सूत्र के आधार पर सोच भी नहीं सकता है, उस पर काम करना तो दूर की बात है. यह हमारी जनतांत्रिक प्रणाली का लचीलापन ही रहा है कि देखते-देखते प्रांतीय ताकतें भी राष्ट्रीय नीतियों के निर्धारण में अहम भूमिका अदा करने लगीं.
देश की वाणिज्यिक एकसूत्रता ने खास तौर पर इस संभावना की ठोस जमीन तैयार की. विभिन्न प्रदेशों की जनता के साझा आर्थिक हितों की बुनियाद पर साझा संस्कृति और राष्ट्रीय पहचान को भी बल मिला. दिन-प्रतिदिन संचार के माध्यमों के अभूतपूर्व विस्तार ने इस प्रक्रिया को और भी तेज और सुदृढ़ किया. पूरे वृत्तांत से साफ है कि ये उपलब्धियां तब तक संभव नहीं हो सकती थीं, जब तक हमने एक निश्चित आदर्श, एक संविधान के तहत निश्चित शीलाचरण और जन-हितों पर केंद्रित सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था के रास्ते को नहीं अपनाया होता.
लेकिन आज आजादी की 70वीं सालगिरह के मौके पर हम फिर क्यों एक बार अपने राष्ट्र को अपने अस्तित्व की कठिन चुनौतियों के सम्मुख पाते हैं? हम फिर क्यों एक बार इसे एक प्रकार की आर्थिक अराजकता, सामाजिक और सांप्रदायिक तनावों में बुरी तरह से जकड़ा हुआ पाते हैं? हैरोल्ड लॉस्की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘राजनीति का व्याकरण’ में लिखा था, ‘जनतंत्र में राज्य का संचालन विशेषज्ञों का काम है क्योंकि उसे उस जनता के हितों के लिये काम करना होता है, जो अपने हितों के प्रति ही •यादातर बेख़्ाबर रहती है.’ ऐसे में सिर्फ वोट में जीतने से वास्तव में कोई प्रशासक नहीं हो जाता.
खास तौर पर जो लोग जनता के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की राजनीति करते हैं, सत्ता में आने के बाद वे जनता के जीवन में सुधार के नहीं और ज्यादा तबाही के कारक बन जाते हैं. आज लग रहा है जैसे लास्की के इस कथन के क्लासिक उदाहरण हैं-हमारे देश की मोदी सरकार और यूपी की योगी की तरह की सरकारें. लगातार तीन साल तक अर्थ-व्यवस्था के क्षेत्र में कोई भी सकारात्मक काम न कर पाने के बाद नरेन्द्र मोदी को जब और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने पिछले साल अचानक ‘नोटबंदी’ का एक तुगलकी कदम उठा कर पूरी अर्थव्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया. जनता के हितों के लिये काम करने के लिये बनी सरकार ने एक झटके में लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये; किसानों के उत्पादों के दाम गिरा कर पूरी कृषि अर्थ-व्यवस्था को चौपट कर दिया. जीडीपी का आंकड़ा 2016-17 की चौथी तिमाही में गिरते हुए सिर्फ 6.1 प्रतिशत रह गया है; औद्योगिक उत्पादन मई महीने में 0.01 प्रतिशत गिर कर इसमें वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत रह गई है. यहां तक कि बैंकों की भी, ख़्ाुद रिजर्व बैंक की, हालत ख़्ाराब कर दी. नोटबंदी के कारण इस बार आरबीआई ने केंद्र सरकार को मात्र 30659 करोड़ रु पये का लाभ दिया है, जो पिछले पांच सालों में सबसे कम और पिछले साल की तुलना में आधा है. जाहिर है, इससे अपने वित्तीय घाटे से निपटने में केंद्र सरकार की समस्या और बढ़ जायेगी जिसकी गाज जनहित के ही किसी न किसी प्रकल्प पर गिरेगी. फलत: आज पूरी अर्थ-व्यवस्था इस क़दर बैठती जा रही है कि अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति की नहीं, मुद्रा-संकुचन को अभी की मुख्य समस्या बताने लगे हैं. मुद्रा संकुचन का अर्थ होता है कंपनियों के मुनाफ़े में तेज़ी से गिरावट और उनके ऋणों के वास्तविक मूल्य में वृद्धि. इसकी वजह से बैंकों का एनपीए पहले के किसी भी समय की तुलना में और तेजी से बढ़ेगा.
मोदी सरकार पहली सरकार है, जिसने उच्च शिक्षा और शोध में खर्च को पहले से आधा कर दिया है. मनरेगा का भट्टा पहले से ही बैठा दिया गया है. किसानों की कर्ज-माफी के सवाल पर भी बहुत आगे बढ़ कर कुछ करने की इनकी हिम्मत जवाब देने लगी है. ऊपर से कूटनीतिक विफलताओं के चलते सीमाओं पर युद्ध की परिस्थिति पूरे परिदृश्य को चिंताजनक बना दे रही है. इसीलिए आज हैराल्ड लास्की बहुत याद आते हैं-जनतंत्र में प्रशासन खुद में एक विशेषज्ञता का काम है. और साथ ही, ऐसा भी लगता है कि इसी प्रकार कोरी लफ्फाजियों के बल पर देश चलता रहा तो यह फिर से एक बार साम्राज्यवादियों की साजिशों का क्षेत्र न बन जाए जो पूरे राष्ट्र के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लगा दे. स्वतंत्रता दिवस के दिन यही शपथ लेने की जरूरत है कि हमारे राष्ट्र के निर्माताओं ने इसके लिये जो रास्ता तय किया था, हम उस पर पूरी दृढ़ता से चलेंगे और उस पथ से भटकाने वालों के शिकस्त देंगे.
| Tweet |