शरद यादव निरा विद्रोह भर

Last Updated 14 Aug 2017 05:36:57 AM IST

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि 2013 में जब नीतीश कुमार भाजपा से गठबंधन तोड़ना चाहते थे, उस वक्त शरद यादव उसके पक्ष में नहीं थे. वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के कार्यकारी संयोजक थे.


शरद यादव विद्रोही हुए.

दिल्ली में जो राष्ट्रीय परिषद आयोजित हुई, उसमें नीतीश के भाषण के पहले उन्होंने कहा था कि आडवाणी जी और वाजपेयी जी का प्रेम और सम्मान मेरे से ज्यादा नीतीश जी को मिलता रहा है. उन्होंने अपने भाषण में भाजपा के खिलाफ टीवी पर बयान देने वालों को लताड़ा भी था. बावजूद इसके नीतीश नहीं माने और शरद यादव को उनके साथ जाना पड़ा.

आज जब नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन से अलग होकर भाजपा का हाथ थामा तो शरद यादव ने विद्रोही तेवर अपना लिया है. पार्टी की मर्जी के विपरीत उन्होंने बिहार की तीन दिवसीय यात्रा की. और पार्टी लाइन से हटकर बोले. जो लोग शरद यादव के राजनीतिक जीवन से परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि वह बंद कमरे की राजनीति में विश्वास नहीं करते. उनकी नजर में जो गलत या सही होता है उसे सामने से कहते और करते हैं. उम्र बीतने के बावजूद उनका यह स्वभाव आज तक बना हुआ है. वर्तमान प्रकरण में उनका यही चरित्र दिख रहा है. लेकिन प्रश्न है कि इससे होगा क्या? क्या जद (यू) और भाजपा के गठबंधन पर कोई असर होगा? क्या इससे बिहार की जनता के मनोविज्ञान पर ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि वे आगे जब भी चुनाव हो भाजपा जद (यू) को नकार दे? इसका केंद्रीय राजनीति पर भी कोई प्रभाव पड़ेगा क्या?

ये ऐेसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर तलाशना लाजिमी हो गया है. नीतीश कुमार नहीं चाहते थे कि पार्टी को शरद यादव के खिलाफ कोई कार्रवाई करनी पड़े. पार्टी के सभी नेता उनकी वरिष्ठता का ध्यान रखते थे और इस नाते उनकी इज्जत भी करते थे. जद (यू) की सोच यह थी कि शरद यादव कुछ बोलते हैं तो उनको बोलने दिया जाए और पार्टी अपनी दिशा पर आगे बढ़ती रहे. किंतु शरद यादव ने पार्टी से सीधा बगावत कर जनसभाएं आरंभ कर दीं और उसमें पार्टी के खिलाफ बोलने लगे. लिहाजा, पार्टी के सामने कार्रवाई के अलावा कोई चारा नहीं बचा था. वास्तव में जद (यू) ने उनको 19 अगस्त को होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी का निमंतण्रतो भेजा है, लेकिन सबको पता चल गया है उनका रास्ता क्या है? वास्तव में जिस दिन राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने बयान देकर अपील की कि शरद यादव सामने आएं, उसी दिन लगा था कि अंदरखाने कुछ हुआ है.

कहा जा रहा है कि लालू ने शरद से फोन पर कई बार बातचीत की और उसके बाद यह बयान दिया. इस समय तो शरद यादव को किसी पार्टी में जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे उनके राज्य सभा की सदस्यता खत्म हो सकती है. किंतु उनका इस समय का तेवर दिखा रहा है कि वह राजद में जा सकते हैं या फिर जद (यू) का एक अलग गुट बनाकर उसके साथ रह सकते हैं. किंतु उनके साथ जद (यू) के भारी संख्या में नेता चले जाएंगे ऐसा संभव नहीं लगता. राज्य सभा सांसद अली अनवर को पार्टी विपक्षी दलों की बैठक में जाने के कारण निलंबित कर चुकी है. वैसे भी अनवर के सामने यह साफ हो गया था कि अब पार्टी अगली बार उनको राज्य सभा देने नहीं जा रही है. ये दोनों सांसद बिहार के एक भी मतदाता को प्रभावित कर देंगे, ऐसा नहीं है.

अनवर उस समय राज्य सभा के सदस्य बनाए गए जब जद (यू) और भाजपा का गठजोड़ था. तब उनको भाजपा में सांप्रदायिकता नहीं दिखती थी. शरद यादव भी भाजपा के साथ गठबंधन के समय ही मधेपुरा से लोक सभा जीते थे. अटल बिहारी वाजपेयी के बीमार पड़ जाने के बाद लंबे समय तक राजग की बैठकों की अध्यक्षता वही करते थे. जद (यू) के ज्यादातर विधायकों एवं नेताओं की राजनीति भाजपा के साथ आगे बढ़ी है और उनका मुख्य स्वर लालू विरोध रहा है. इसलिए वे नये गठजोड़ को स्वाभाविक मान रहे हैं. उनमें से ज्यादातर के अंदर इससे असंतोष नहीं है. इसलिए शरद जी इस विद्रोह से बिहार की जद (यू) में कोई बड़ी टूट कराने में सफल नहीं होंगे. हां, लालू यादव को राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े नेता की छतरी अवश्य मिल गई है. दूसरे, इससे जद (यू) एवं भाजपा का गठबंधन प्रभावित नहीं होगा.




भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने नीतीश कुमार को बाजाब्ता राजग में आने का निमंत्रण दे दिया है, जिसे स्वीकार किए जाने की पूरी संभावना है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार चुनाव के पूर्व जो पैकेज घोषित किया था, उसे तेजी से निर्गत करने की योजना पर काम चल रहा है. जहां तक केंद्रीय राजनीति का प्रश्न है तो इस समय मोदी जिस तरह से अपराजेय दिख रहे हैं, उसमें शरद जी या उनके कुछ साथियों के विद्रोह से बहुत ज्यादा अंतर नहीं आएगा. उनकी इस बात से तो कुछ देर के लिए सहमति हो सकती है कि बिहार की जनता ने महागठबंधन को जनादेश दिया था, लेकिन गठबंधन तोड़ना जनता के साथ धोखा है; इससे सहमत होना कठिन है. कारण, नीतीश ने यह कदम तब उठाया है जब उनके पास कोई चारा नहीं बचा था.

आखिर उनके मंत्रिमंडल के दूसरे नंबर के व्यक्ति पर सीबीआई भ्रष्टाचार के मामले में प्राथमिकी दर्ज कर दे, उसके यहां छापा पड़ जाए, सत्तारूढ़ घटक के सबसे बड़े दल के मुख्य नेतृत्व परिवार के ज्यादातर सदस्यों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई हो जाए तो कोई ईमानदार नेता क्या करेगा? यह सवाल शरद यादव के सामने भी उठेगा. क्या लालू परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप से जुड़े सवाल आने वाले चुनाव में जनता उनसे नहीं पूछेगी?

तीसरे, नीतीश ने साफ कहा है कि उनको सरकार चलाने में कठिनाई आ रही थी. यानी सत्ता के दो केंद्र हो गए थे. लालू दूसरे केंद्र बन गए थे. हालांकि नीतीश यदि सरकार बचाने की जगह चुनाव में जाने का अनुशंसा कर देते तो ज्यादा बेहतर होता. नये सिरे से जिसे जनादेश मिलता वह शासन चलाता. किंतु ऐसा न करने के बावजूद यदि आप बिहार का दौरा करिए तो जनता की प्रतिक्रिया आपको बता देगी कि बहुमत नये गठजोड़ का स्वागत कर रही है. शायद शरद इस सच से अवगत नहीं हैं कि महागठबंधन के शासन में बिहार की कानून व्यवस्था रसातल में पहुंच गई थी. नीतीश को लग गया था कि ज्यादा समय तक गठजोड़ में रहने का अर्थ है-जनता के बीच पूरी तरह अलोकप्रिय हो जाना.

 

 

अवधेश कुमार


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