हिंसक होता बचपन
आजकल बालमन हिंसा के जहरीले ज्वर से पीड़ित हैं. आए दिन सामने आने वाली बाल अपराधों की खबरें इस बात की तस्दीक करती हैं कि बच्चों में हिंसा की संस्कृति तेजी से हावी हो रही है.
हिंसक होता बचपन |
हाल में घटी दो-तीन घटनाएं काबिलेगौर हैं. एक घटना उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले के एक प्राइमरी स्कूल की है. इस स्कूल में पहली और तीसरी कक्षा के बच्चों के बीच कुछ कहासुनी हो गई. पहली कक्षा के बच्चों की उम्र पांच-छह साल थी और तीसरी कक्षा के बच्चों की आठ-नौ साल. मामूली-सी कहासुनी इतनी बढ़ गई कि तीसरी कक्षा के कुछ बच्चों ने पहली कक्षा के उस बच्चे को क्लास रूम में बंद कर इतनी बुरी तरह मारा-पीटा कि अस्पताल में उस बच्चे की मृत्यु हो गई. आठ-नौ साल के बच्चों द्वारा अंजाम दी गई इस वीभत्स घटना से बाल मन पर हिंसा के बढ़ते प्रभाव को सहज ही महसूस किया जा सकता है.
इस हिंसक संस्कृति की दूसरी घटना दिल्ली के एक स्कूल की है. छठी कक्षा की एक छात्रा की कुछ अन्य छात्रों के बीच किसी बात को लेकर तनातनी हो गई. यों किसी विषय पर मतभेद हो जाना कोई बड़ी बात नहीं होती पर बच्चों के मन में प्रतिशोध की भावना का इतना प्रबल हो जाना कि वह आक्रामकता अमानवीयता का रूप ले ले; वाकई एक खतरनाक संकेत है. एक दिन मौका मिलते ही उस छात्रा को कमरे में बंद कर उन छात्रों ने उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया. इस घटना को हल्के में नहीं लिया जा सकता. यह घटना हमारे महानगरीय स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की हिंसक व क्रूर मानसिकता का प्रदर्शित करती है.
ऐसी ही एक घटना गुड़गांव के इंटरनेशनल स्कूल की है. स्कूल के 13 और 14 साल के दो छात्रों का एक अन्य छात्र से झगड़ा हो गया. उस समय तो बात आई-गई हो गई पर मनों में कड़वाहट इतनी गहरी हो गई कि एक दिन मौका मिलते ही उन दोनों ने उस छात्र की गोली मार कर हत्या कर दी. बच्चों व किशोरों में गहराती ऐसी प्रवृत्तियां निश्चित रूप से असामान्य हैं. दरअसल, बच्चों का मन जितना अच्छाई से प्रभावित होता है उतना ही बुराई से भी.
विमहंस ने 1200 बच्चों पर किए एक अध्ययन के आधार पर बताया है कि दिल्ली में पिछले एक दशक में 15 से 18 साल के बच्चों में तम्बाकू और अल्कोहल का इस्तेमाल चार गुना बढ़ गया है. मौज-मस्ती और खाने-पीने में सुख तलाशने वाले वर्तमान समाज की संवेदनाएं शून्य होती जा रही हैं. और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हमारे बच्चों पर हो रही है. आज शोर-शराबे वाले मनोरंजन ने अपना व्यापक जाल फैला रखा है. मनोवैज्ञानिकों की मानें तो चिंतनविहीन, दिशाहीन मनोरंजन ने बच्चों के अंदर अनेक मानसिक विकृतियां पैदा कर दी हैं. टीवी पर देर तक चलने वाले प्रोग्राम ने बच्चों की दिनचर्या पर असर डाला है. ऐसे बच्चे स्कूलों में उनींदे रहते हैं. आज टीवी सेक्स, रोमांस, हिंसा, बड़बोलापन सब कुछ खुलेआम दिखा रहा है.
स्मार्टफोन व इंटरनेट के बेतहाशा बढ़ते उपयोग ने आग में घी का काम किया है. इसी का नतीजा है कि बच्चों में हिंसक व काम प्रवृत्तियां समय से पूर्व तेजी से बढ़ती जा रही हैं. शिक्षा शास्त्रियों का कहना है कि कहानियां सही अथरे में बच्चों का भाषिक ज्ञान और शब्दावली बढ़ाने में सहायक होती हैं मगर आज के समय में किस्सों-कहानियों के जरिए बच्चों का मनोरंजन करना बीते जमाने की बात हो गई है. दो-ढाई दशक पहले का दौर याद कीजिए.
जब बच्चों का बड़ा प्यारा सा बचपन होता था, प्रकृति की गोद होती थी, खुला आकाश होता था, माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी जैसे संबंधों की प्यार भरी अनुभूति होती थी पर आज ये सब कहां? कम्प्यूटर के इस युग ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया. वीडियो गेम, कम्प्यूटर गेम और न जाने क्या-क्या; बस इन्हीं में उलझे रहते हैं आज के बच्चे. सोचिये, हम आधुनिकता और सुखी जीवन के नाम पर बच्चों को कौन-सी मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक खुराक परोस रहे हैं? दरअसल, बालमन कच्ची मिट्टी की तरह होता है, जैसा चाहो वैसा बना लो.
बच्चा 24 घंटे में छह घंटे स्कूल और 18 घंटे घर के वातावरण में रहता है. ऐसे में आज माता-पिता व अन्य घर वालों की सतर्कता बेहद जरूरी है. बच्चों में अच्छी आदतें व संस्कार डालें. उनमें जीवन मूल्यों से भरी शिक्षाप्रद पुस्तकें पढ़ने का शौक पैदा करें, उन्हें यदा-कदा दादा-दादी की नसीहतें सुनने दें. गुरुजनों के प्रति आदर भाव को जगाएं. हम सभी मिलकर ऐसी सुख स्थिति निर्मित करें ताकि बच्चों की संवेदनाएं बनी रहें.
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