आयुर्वेद : नैदानिक परीक्षण की दरकार
केदारनाथ यात्रा से लौटते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरिद्वार में बाबा रामदेव के जिस आयुर्वेद शोध संस्थान का उद्घाटन किया, उसका एक उद्देश्य बाबा रामदेव के मुताबिक आयुर्वेदिक दवाओं के क्लीनिकल ट्रायल की परंपरा स्थापित करना है.
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रामदेव के अनुसार, दुनिया में आयुर्वेद की वैज्ञानिकता प्रमाणित करने के लिए ऐसा करना जरूरी है. सवाल है कि आखिर आज आयुर्वेद को क्लीनिकल ट्रायल की जरूरत क्यों पड़ रही है और क्या ऐसा करके ही इन दवाओं में दुनिया का भरोसा बढ़ाया जा सकता है?
असल में हमारी सरकार योग और आयुर्वेद को पूरी दुनिया में मान्यता दिलाना चाहती है, पर दवाओं को लेकर पूरब और पश्चिम के जो फर्क हैं-उनके रहते आयुर्वेद की राह आसान नहीं है.
भले ही दुनिया के कई देशों में आयुर्वेदिक दवाओं का आयात भारत से होता हो, लेकिन इनके खिलाफ एक बड़ा भारी मत यह है कि प्राचीन ग्रंथों के उल्लेखों और सिर्फ भरोसे के आधार पर उन दवाओं का कारोबार नहीं चल सकता-जिनके बनाने की विधि में एकरूपता न हो और इंसानों पर जिनके असर व दुष्प्रभाव को मापने का कोई जरिया न हो. यही वजह है कि मौजूदा कायदे-कानूनों के कारण वहां चिकित्सक इन्हें आजमाने से कतराते हैं. यही नहीं, इन दवाओं की निर्माता भारतीय कंपनियां भी अपने उत्पाद वहां भेजते समय आशंकित रहती हैं कि उनकी दवाओं में मानक संबंधी कोई दोष न निकाल दिया जाए और करोड़ों की खेप सिर्फ संदेह के आधार पर लौटा न दी जाए.
अतीत में ऐसा कई बार हो चुका है जब भारतीय आयुर्वेदिक कंपनियों की दवाओं की खेप की खेप पश्चिमी मुल्कों से यह कहकर लौटाई गई कि उनमें या तो जरूरत से ज्यादा भारी धातुएं (हैवी मेटल्स) हैं या फिर उनके निर्माण की प्रक्रियाओं में लापरवाही बरती गई है. एक उदाहरण वर्ष 2005 का है, जब कनाडा के सरकारी विभाग ने कई भारतीय आयुर्वेदिक कंपनियों की दवाओं में सीसा, पारा और आर्सेनिक जैसे खतरनाक तत्वों की मौजूदगी दर्ज की थी. उसने यह दावा भी किया था कि इन तत्वों से लोगों में दिमागी सूजन, पक्षाघात और कैंसर जैसी कई बीमारियां हो सकती हैं.
इन्हीं तथ्यों के आधार पर उसने अपने नागरिकों से भारतीय आयुर्वेदिक कंपनियों की साफी, शिलाजीत, करेला कैप्सून और महासुदर्शन चूर्ण आदि से परहेज बरतने को कहा था. अमेरिका भी भारत से वहां भेजी गई आयुर्वेदिक दवाओं की एक बड़ी खेप उनमें तय मानक से कई गुना ज्यादा भारी धातुओं की मौजूदगी के दावे के साथ लौटा चुका है. करीब 11 साल पहले सिंगापुर भी भारतीय दवा कंपनी के च्यवनप्राश की खेप को उसमें मौजूद भारी धातुओं और कीटनाशक तत्वों के आधार पर लौटा चुका है.
आयुर्वेदिक दवाओं में भारी धातुओं की उपस्थिति अकारण नहीं है. प्राचीन ग्रंथों के संदभरे के आधार पर उनमें ये तत्व और धातुओं की भस्म आदि आवश्यकतानुसार मिलाए ही जाते हैं. इससे इनकार नहीं कि जब बात मानकों, प्रमाणन और एक व्यवस्थित प्रक्रिया की होती है तो इस मामले में होम्योपैथी, चीनी, यूनानी चिकित्सा पद्धितयों की तरह एक अभाव आयुर्वेद में भी है. कोई आयुर्वेदिक दवा कंपनी लोगों को इस बारे में सचेत नहीं करती है कि उनकी दवाओं को यदि सही ढंग से नहीं लिया गया, तो उनके भी साइड इफेक्ट हो सकते हैं.
यही नहीं, देश में आयुर्वेदिक दवाओं के मानकीकरण की व्यवस्थित और साझा व्यवस्था भी लंबे समय तक नहीं थी, जबकि ये दवाएं दशकों से देश-विदेश में बेची जा रही थीं. यही वजह है कि तीन साल पहले वर्ष 2014 में जब मंत्रिमंडल विस्तार में आयुर्वेद को संरक्षण प्रदान करने वाले आयुष विभाग को पहली बार मंत्रालय स्तरीय जगह दी गई तो आयुर्वेद के विस्तार में आ रही बाधाओं पर चिंतन भी शुरू किया गया. इसी प्रक्रिया के तहत आयुष विभाग ने आयुर्वेदिक दवाओं के क्लीनिकल ट्रायल की जरूरत पर जोर दिया था, क्योंकि इसके बिना दवाओं की विसनीयता प्रमाणित करना आज के जमाने में लगभग असंभव है.
सबसे ज्यादा जरूरी है कि आयुर्वेदिक दवाओं का क्लीनिकल ट्रायल, क्योंकि वे इसे अपने कामकाज में बाधा की तरह देखते हैं. गौरतलब है कि इस वर्ष (मार्च, 2016) में आयुष विभाग ने एक अधिसूचना लाकर हर नई आयुर्वेदिक दवा को बाजार में उतारने से पहले क्लीनिकल ट्रायल जरूरी बनाने का निर्देश जारी किया था. आयुष विभाग का मत था कि इससे न केवल आयुर्वेद को लेकर कायम संदेह दूर होंगे, बल्कि इससे इन दवाओं का दायरा भी बढ़ सकेगा. इससे ही आयुर्वेद की मान्यता का वह रास्ता खुल सकता है जिसकी उसे वास्तव में दरकार है.
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