वैलेंटाइन डे : टूटती पेंसिलें और बिखरता प्रेम
रहीम जी काफी पहले कह गए थे-रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय. हाल में ऐसी ही एक टिप्पणी गुजरात हाईकोर्ट में की गई.
![]() वैलेंटाइन डे : टूटती पेंसिलें और बिखरता प्रेम |
जज ने भरी अदालत में पेंसिल तोड़ते हुए एक जोड़े को सलाह दी कि जिस तरह यह पेंसिल अब जोड़ी नहीं जा सकती, उसी तरह टूटे रिश्तों को जोड़ना मुमकिन नहीं है. मामला एक ऐसे जोड़े का था, जिसने सात साल चले प्रेम के बाद 2007 में विवाह किया था, लेकिन उसके बाद प्रेम दस साल भी टिक न सका. यह देखते हुए कि प्रेम विवाह अब किसी प्रगतिशीलता का सर्टिफिकेट नहीं रहा और न ही इसे एक क्रांतिकारी उपलब्धि माना जाता है, लव मैरिज में बड़े पैमाने पर आ रही टूटन कई सवाल पैदा कर रही है.
बदलते वक्त और समाज की बदलती लाइफस्टाइल की एक जरूरत के तौर पर प्रेम विवाह को अक्सर रेखांकित किया जाता है. भले ही हमारे समाज में इसे अभी उतनी स्वीकार्यता नहीं मिली है, पर सहपाठियों और सहकर्मिंयों के बीच होने वाले प्रेम विवाह इस आशय के साथ जरूरत माने जाते हैं कि इससे सामंजस्य बिठाने में सहूलियत होती है. सालों-साल एक साथ पढ़ाई करने वालों और दफ्तर में साथ समय बिताने वाले जोड़ों के बीच इस समझदारी की उम्मीद ज्यादा की जाती है कि उन्हें एक-दूसरे की इच्छाओं का सम्मान करना आता है और वे एक दूसरे की पसंद-नापसंद या जरूरतों को ज्यादा अच्छी तरह से समझते हैं.
लेकिन अदालतों में बढ़ते तलाक के मामले साबित कर रहे हैं कि प्रेम विवाह के बावजूद, जमाई शादियों में भयानक खटास पैदा होने लगी है और शहरों में यह ‘मर्ज’ कुछ ज्यादा ही तेजी से फैल रहा है. कुछ सर्वेक्षणों के जरिये जिन शहरों के बारे में ऐसे खुलासे हुए हैं, पता चला है कि वहां तलाक लेने-देने की दर इधर के वर्षो में तेजी से बढ़ी है. दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में तो हर साल 10 हजार से ज्यादा तलाक दर्ज हो रहे हैं, जिनमें काफी ज्यादा संख्या ऐसे ही जोड़ों की है, जो अपनी लव मैरिज से जल्दी ही ऊब जाते हैं और किसी दूसरे में उन्हें ज्यादा दिलचस्पी नजर आने लगती हैं.
निस्संदेह सड़ती हुई शादी को जिंदगी भर ढोने के मुकाबले तलाक लेना कहीं ज्यादा अच्छा और समझदार विकल्प है, लेकिन उन कारणों की तलाश भी होनी चाहिए जो अक्सर शादियों में सड़ांध पैदा करते हैं. गांवों-कस्बों में तो प्रेम और जाति-गोत्र के बाहर शादी गुनाह है. लिहाजा वहां शादी के बेहद सीमित विकल्पों में यदि थोड़ा पढ़ा-लिखा, कमाई-धमाई के मामले में स्वावलंबी और दिखने में ठीक-ठाक विकल्प मिल जाए-तो जीवन धन्य मानकर शादी को ताउम्र निभाने का चलन है. भले ही शादी के चंद सालों बाद रिश्ते में पड़ी गांठें टीस बनकर रिसने ही क्यों न लगें? शहरों में लड़के-लड़कियां अपने विकल्प चुनने को कुछ तो आजाद हैं ही, इसके बावजूद शहरी समाज में तलाक की बढ़ती दर बताती है कि वहां सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है.
असली बात यह है कि शहरी और पढ़ा-लिखा युवा तबका भी अब शादी के मामले में मां-बाप, समाज और जाति-गोत्र के बंधनों को सहने को मजबूर हुआ है. ऐसे में प्रेम विवाह करने के बाद भी उसे समाज, परिवार और मित्रों की तरफ से कई चाहे-अनचाहे दबावों का सामना करना पड़ता है, जिनके असर से उनके समझदारी वाले रिश्ते में भी टीस पड़ जाती है. कई बार समस्या की शुरु आत परिजनों की सामान्य टीका-टिप्पणी से होती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि दूसरों की निजी जिंदगी को नियंत्रित करना उनका हक है. विवाह को लेकर अभी हमारा समाज इस मानसिकता से नहीं उबर पाया है कि यह सिर्फ दो लोगों की जिंदगी का निजी मामला है, उसमें तीसरे के दखल की गुंजाइश नहीं है.
अक्सर ऐसी ही दखलअंदाजी पति या पत्नी में से किसी एक के अहं को उकसाती है और ठीक-ठाक चल रहे रिश्ते में गांठें पड़ने लगती हैं. प्रेम विवाह में तड़कन की दूसरी मुख्य वजह बेवफाई के उन किस्सों से पैदा होती है, जो इधर साइबर खोजबीन या सोशल मीडिया पर यहां-वहां ताकझांक के दुष्परिणाम के रूप में सामने आए हैं. समाजशास्त्रियों को ही नहीं, आम लोगों को भी यह बैठकर सोचना होगा कि शादीशुदा जिंदगी के ये असंतोष से और बेहतर पाने-खोजने की लालसा ऐसे अंतहीन दुष्परिणामों की तरफ लोगों को न ले जाए, जहां शुरुआती फरेब के बाद सिर्फ हताशा और निराशा है. वक्त आ गया है कि हमारा समाज प्रेम के उस पहलू को फिर से समझे जो शात और सहज है और जिसमें मानवीयता के गुण हैं. प्रेम विवाह की नाकामी भी एक विनाश और अवसाद की मानसिकता का उद्घाटन है. इससे न तो युवाओं को और न ही समाज को नकारात्मकता के सिवाय कुछ हासिल होता है.
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