इस वोटिंग के मायने
उत्तर प्रदेश के चुनावी महासमर की शुरुआत का सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि सांप्रदायिक तनावों और कुछ जातीय विद्वेष की आशंकाओं के बीच मतदान शांतिपूर्ण रहा.
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जहां एक ओर मुजफ्फरनगर दंगे की टीस हो, कैराना के पलायन का क्षोभ और बिसहाड़ा के गोमांस कांड का घाव हरा हो..वहां मतदान में व्यापक पैमाने पर हिंसा न होना सामान्य बात नहीं है. निश्चित रूप से इसमें चुनाव आयोग द्वारा किए गए कठोर सुरक्षा व्यवस्था की भूमिका है. लेकिन इसके साथ हमें 15 जिलों के 73 विधान सभा क्षेत्रों के सभी मतदान करने वालों के विवेक की भी प्रशंसा करनी होगी. आखिर वे हर प्रकार के उकसावे से अप्रभावित रहे और मतदान किया. यह लोगों की बढ़ती आचरणगत परिपक्वता का परिचायक है. यह न हो तो चुनाव आयोग की व्यवस्थाएं भी विफल हो सकती हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि आगे के शेष छह चरणों में भी यही स्थिति रहेगी.
इसका अर्थ यह भी है कि मतदान से बाहुबल का प्रभाव लगभग खत्म हुआ है. इसके पूर्व 4 फरवरी को पंजाब एवं गोवा का मतदान भी बिल्कुल शांतिपूर्ण रहा. हालांकि गोवा में कभी हिंसा का इतिहास नहीं रहा है. लेकिन पंजाब? वहां तो मादक द्रव्यों से लेकर अवैध हथियारों के कारोबारों के प्रमाण उपलब्ध हैं. राजनीतिक दलों में भी तीखा विभाजन है. बावजूद इसके मतदान का इससे अप्रभावित रहना कुल मिलाकर हमारे संसदीय लोकतंत्र के परिपक्व और संतुलित होने का ही परिचायक है.
आखिर इतनी भारी संख्या में लोग मतदान करने आएं, लंबे समय तक कतारों में खड़े रहें और मतदान कर शांतिपूर्ण वापस चले जाएं इसकी कल्पना उन लोगों ने नहीं की थी, जिनसे हमने अपने देश को आजाद कराया था. तो आजादी के 70 सालों में हमारी अनेक विफलताएं हैं. राजनीति जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, वंश सबके विकृत प्रभाव से ग्रस्त हुआ है, पर इसके समानांतर हमने लगातार चुनाव कर शांतिपूर्ण सरकार परिवर्तन का कीर्तिमान भी बनाया है. उत्तर प्रदेश की ओर लौटें तो क्या राजनीति के बीच तीखा विभाजन कम है? सपा और बसपा के संबंध सामान्य राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की न होकर राजनीतिक दुश्मनी में परिणत हैं. दोनों के बीच पहले संघर्ष भी हुए हैं. भाजपा और कांग्रेस के संबंध भी आज की स्थिति में सामान्य नहीं है.
जातियों की दृष्टि से देखें तो हरियाणा में जाटों के आरक्षण का मसला उत्तर प्रदेश के पहले चरण के मतदान के दौरान तनाव का मुद्दा था. इससे यह आशंका बलवती हुई कि कहीं दूसरी जातियों या जिस पार्टी को ये मतदान करना चाहते हैं, उसके समर्थकों के साथ इनका हिंसक संघर्ष न हो जाए. ध्यान रखिए, पिछली बार यद्यपि बसपा सत्ता से बाहर हो गई लेकिन इस क्षेत्र में उसे सपा के समान 24 सीटें मिली थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समाज और राजनीति को लंबे समय से जानने वालों के लिए यह बहुत बड़ा परिवर्तन है. पहले चरण के चुनाव में एक समय अविसनीय लगने वाले इस परिवर्तन को और पुख्ता करने का प्रमाण मिला है. तो राजनीति और चुनाव से हुआ यह ऐसा सामाजिक परिवर्तन है, जिसका उल्लेख बार-बार किया जाएगा. इसके परिणामस्वरूप ही मतदान की संख्या में वृद्धि हुई है.
वास्तव में उत्तर प्रदेश की चुनावी पृष्ठभूमि को देखते हुए मतदान का प्रतिशत भी सामान्य नहीं है. इस चरण में 64 प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुआ है. पंजाब और गोवा से तुलना करने पर यह कम लग सकता है. किंतु उत्तर प्रदेश के लिए यह रिकॉर्ड मतदान है. पिछली बार भी जब मतदान का रिकॉर्ड टूटा तो पूरे प्रदेश में कुल 59.5 प्रतिशत मतदान हुआ था. इस क्षेत्र में भी 61.2 प्रतिशत मतदान था. जाहिर है, प्रथम चरण के मतदान ने फिर से कीर्तिमान स्थापित किया है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य, जहां से भारी संख्या में लोग रोजगार एवं शिक्षा के लिए बाहर जाते हैं वहां मतदान कई अन्य प्रदेशों के समान नहीं हो सकता है.
वैसे भी जो बड़े राज्य हैं वहां छोटे राज्यों से थोड़ा कम मतदान होता है. किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि उत्तर प्रदेश जैसे जटिल सामाजिक-राजनीतिक स्थिति वाले प्रदेश के संदर्भ में उठाई गई सारी आशंकाएं खत्म हो गई हैं या चुनाव को लेकर जो प्रश्न थे उनके उत्तर भी सकारात्मक मिले हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव के संदर्भ में सबसे बड़ा प्रश्न यही था कि क्या चुनाव इस बार भी जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तस्वीर पेश करेगा? या कि लोग इनसे बाहर निकलकर सही मुद्दों पर मतदान करेंगे? या वे यह देखेंगे कि कौन सी पार्टी और कौन उम्मीदवार सामूहिक हित की चिंता करने वाला है? अगर ऐसा होता तो इसका असर चुनाव के अन्य चरणों में भी पड़ता. इससे उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एक नई शुरु आत हो सकती था.
ऐसा हुआ या नहीं इसका स्पष्ट उत्तर तो चुनाव परिणाम के बाद ही मिलेगा. किंतु जो रिपोर्ट आ रहीं हैं उनके अनुसार लोगों ने शांति अवश्य धारण किया था, वो पूरी तरह जाति और संप्रदाय से उपर उठकर मतदान कर रहे थे इसके प्रमाण नहीं है. जो सूचना मिल रही है मुस्लिम मतदाताओं को चुनावी सभाओं में कुछ नेताओं ने एक पार्टी से डराने का काम किया तो कुछ ने हिन्दुओं को चेताया. तो सांप्रदायिक आधार पर मत विभाजन की पूरी कोशिशें हुई हैं. वास्तव में मतदान से निकलते मतदाता अवश्य टीवी कैमरों के सामने विकास को मुद्दा बताते रहे, पर रिपोर्टें बता रहीं हैं कि जातीय और सांप्रदायिक तत्व अनेक क्षेत्रों मे हावी रहे. तो प्रथम चरण से ध्रुवीकरण की नींव पड़ गई है. इसी तरह कुछ जाति विशेष के ध्रुवीकरण की खबरे हैं.
जाहिर है, इस खबर के फैलने के बाद आगे के चरणों में इसकी प्रतिक्रिया में और ध्रुवीकरण होगा. किसी नेता को इसे रोकने के लिए काम करने की मंशा नहीं. निस्संदेह, यह दुर्भाग्यपूर्ण है. किंतु जो है उस सच से हम मुंह नहीं मोड़ सकते. हम चाहेंगे कि चुनाव सांप्रदायिक एवं जातीय ध्रुवीकरण से दूर रहे. लेकिन सच को तो स्वीकारना ही होगा. तो उत्तर प्रदेश में विकास की जितनी बात की जाए, प्रमुख नेता जो भी भाषण दें, सपा-कांग्रेस भले 10 सूत्री एजेंडा जारी करे, चुनाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर मुड़ गया है और यह इस चुनाव में तो रुकने वाला नहीं.
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