कर्म
आप में से ज्यादातर लोग जो इसी संस्कृति में पले-बढ़े होंगे, उन्होंने कर्म के बारे में काफी कुछ सुना होगा.
![]() धर्माचार्य जग्गी वासुदेव |
फिर भी यह सवाल मन में रह जाता है कि कर्म व क्रियाकलापों या कार्य कारण के इस अंतहीन चक्र से बाहर कैसे निकला जाए? क्या कुछ ऐसे क्रियाकलाप हैं, जो मुक्ति के मार्ग पर दूसरी गतिविधियों की तुलना में ज्यादा सहायक होते हैं? दरअसल, किसी भी तरह की कोई भी गतिविधि का नहीं होना ही सबसे अच्छा है, न शरीर में, न दिमाग में किसी तरह की कोई हलचल हो. लेकिन कितने लोग ऐसा कर पाने के काबिल हैं?
अंग्रेजी शासन के अंतिम दिनों में जब स्वतंत्रता आंदोलन मजबूत होने लगा था और अंग्रेज समझने लगे थे कि जल्द ही भारत में उनका राज खत्म होने वाला है, तो जाने से पहले वह जितना हो सके, भारत को लूट लेना चाहते थे. जब दुनियाभर में आर्थिक मंदी का छाने लगी तो अंग्रेजों की नजर दक्षिण भारत के मंदिरों पर पड़ी. हालांकि लोग काफी गरीब थे, भूख से मर रहे थे, लेकिन वे अपने भगवान की देखभाल बहुत अच्छे से करते थे, जिसकी वजह से मंदिरों में भारी खजना भरा पड़ा था.
अंग्रेजों को ये मंदिर आय का बड़ा स्रोत लगे, जिसके चलते उन्होंने इन मंदिरों को अपने नियंत्रण में रखने का फैसला किया. एक दिन एक कलेक्टर की नजर एक मंदिर के बहीखाते में दर्ज एक एंट्री पर पड़ी, जिसमें लिखा था-‘भोजन-ऐसे स्वामी के लिए, जो कुछ नहीं करते हैं, के लिए पच्चीस रुपये प्रतिमाह. यह देखकर कलेक्टर ने कहा कि हम ऐसे आदमी को क्यों खाना खिला रहे हैं, जो कुछ नहीं करता.
उन्हें खाना देना बंद करो. यह सुनकर मंदिर का पुजारी परेशान हो गया और वह मंदिर के ट्रस्टी के पास गया और कहने लगा कि हम उन्हें खाना देना कैसे बंद करें? उनमें से एक ट्रस्टी ने कलेक्टर से जाकर कहा कि वह उनके साथ उस कुछ न करने वाले स्वामी के पास चलें. उस ट्रस्टी ने कलेक्टर से प्रार्थना की कि वह भी स्वामी की तरह बस सहज से रूप से बैठे रहें और कुछ भी न करें.
कलेक्टर को लगा कि इसमें क्या बड़ी बात है. लेकिन पांच मिनट के भीतर ही कलेक्टर ने पुजारी से कहा कि ठीक है, इस आदमी को भोजन दिया जाए. उस स्वामी ने इतना ‘कुछ नहीं’ किया था कि वहां पर जबरदस्त चीजें घटित हो रही थीं. इस आयाम से पूरी तरह से अनजान कलेक्टर पूरी तहर से अभिभूत हो गया था. फिर उसने इस बारे में बात करना छोड़ दिया.
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