कर्तव्य
मनुष्य जीवन सर्वोत्कृष्ट जीवन है. उसकी गरिमा न समझी जा सके तो उसे एक प्रकार से अभिशाप ही कहा जाएगा.
![]() धर्माचार्य श्रीराम शर्मा आचार्य |
खेद की बात है कि वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक रुग्ण, चिंतित, और समस्याओं से ग्रसित पाया जाता है. कहना यह कि मानव जीवन की यही कहानी होकर रह जाती है. यदि कोई यह समझ सके कि उसे ईश्वर के वैभव भंडार का सवरेपरि उपहार उपलब्ध है, इसके साथ असंख्य संभावनाएं और अगणित विभूतियां जुड़ी हुई हैं, तो उसके उत्साह का ठिकाना न रहेगा.
पर यह भी सत्य है कि जहां यह अनुपम उपहार मिला है, वहां पर उत्तरदायित्व का भार भी उतना ही बड़ा जुड़ा हुआ है. ऐसे में उसे सार्थक, सुखद और सफल बनाना मनुष्य का परम कर्त्तव्य और दायित्व है. ईश्वर समदर्शी और न्यायकारी है. कहें कि उसे न किसी से राग है न द्वेष हैं. वह इतना समदर्शी और दयालु है कि सभी को पात्रता में उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण होने का अवसर देता है.
विद्यार्थियों के उदाहरण से इसे अच्छे से समझा जा सकता है. स्कूली छात्रों में से जो उत्तीर्ण होते हैं, वे अगले दर्जे में चढ़ जाते हैं. जो अच्छे नम्बर लाते हैं, वे छात्रवृत्ति पाते हैं. इतना ही नहीं, बड़े चुनावों में भी उन्हीं को प्राथमिकता मिलती है. इसके विपरीत जो फेल होते रहते हैं, वे अपने साथियों में उपहासास्पद बनते हैं, घरवालों की र्भत्सना सहते हैं, अध्यापकों की आंखों में गिरते हैं और अपना भविष्य अंधकारमय बना बैठते हैं. इसमें ईश्वर की विधि-व्यवस्था या अन्य किसी को कोसना व्यर्थ है. असल में यह स्व-उपार्जित ही होता है.
भगवान ने जो सुविधाएं मनुष्य को दी हैं, सृष्टि के अन्य प्राणियों को उतनी नहीं. मनुष्य को सभी जीवों पर यह एक प्रकार की श्रेष्ठता प्रतीत होती है. लेकिन मोटी बुद्धि से यह पक्षपात समझा जा सकता है, किन्तु वास्तविकता दूसरी ही है. जीवों में से लंबी अवधि के उपरांत हर किसी को यह अवसर मिलता है कि वह सुयोग का लाभ उठाए और अपनी पात्रता का परिचय दे कि वह बड़े अनुदानों को उन्हीं कामों में खर्च कर सकता है, जिनके लिए उसे मिले हैं.
निश्चित रूप से वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए यह अनुदान किसी को भी नहीं मिला है. मनुष्य जीवन तो विशुद्ध रूप से एक काम के लिए मिला है-‘शष्टा के विश्व उद्यान के भौतिक पक्ष को समुन्नत और आत्मिक पक्ष को सुसंस्कृत बनाने में हाथ बंटाया जाए.’
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