बदलनी होगी सामाजिक संरचना

Last Updated 06 Feb 2017 05:15:24 AM IST

महिलाओं को जब नए दायरों में छलांग लगानी हैं, वहां घुसकर पुरुष वर्चस्व से जुड़े पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को ध्वस्त करना है, तो इसके लिए समाज से कोई खास नरमी की उम्मीद किए बगैर सारा जोर अपनी क्षमताएं विकसित करने पर लगाना होगा.


बदलनी होगी सामाजिक संरचना

लेकिन मर्दवादी माइंडसेट बदलने के लिए कई प्रयास उन सारे पेशों के शीर्ष पर बैठे लोगों को करने होंगे, जिनकी नजर नये औजारों और नये हथियारों को आजमाने में तो है, लेकिन नये नजरिये को लेकर अभी भी उन्हें काफी परहेज है. दिमागी स्तर पर की जाने वाली इन तब्दीलियों के बगैर महिलाएं किसी भी उस क्षेत्र में कामयाबी से आगे नहीं बढ़ सकती हैं, जिसे फिलहाल पुरुषों तक सीमित माना जाता है.

ताजा घटना आईटी कंपनी इंफोसिस के पुणे स्थित कार्यालय में कंप्यूटर इंजीनियर 23 साल की राशिला राजू की हत्या है, जिसे कंपनी के ही सिक्योरिटी गार्ड ने इसलिए मार दिया कि वह उसकी घूरने की आदत की कई बार शिकायत कर चुकी थी. कुछ लोग इसे महिलाओं का दुस्साहस कह सकते हैं कि हर मोर्चे पर पुरुषों की हमकदम होने की कोशिश में अब वे ज्यादतियां बर्दाश्त नहीं करती हैं, जिनके बारे में अपेक्षा थी कि ऐसी बातों को वे चुपचाप सह जाएंगी.

वैसे तो पिछले कुछ अरसे से अदालतें लगातार विभिन्न पेशों में महिलाओं को आगे लाने संबंधी फैसले देती रही हैं और अब सरकार की भी कोशिश है कि कम-से-कम उन सारे सेक्टरों में महिलाओं की उपस्थिति तो दर्ज हो, जिन्हें हमारे देश में महिलाओं के लिए वर्जित माना जाता रहा है और जिन पर अभी तक सिर्फ  मर्दों का एकाधिकार या वर्चस्व रहा है. महिलाएं सिर्फ  अध्यापिकाएं बनकर न रह जाएं, बल्कि वे आईटी सेक्टर में जाएं, बैंकों में जाएं, इंजीनियर-साइंटिस्ट बनें, स्पेस में जाएं और सबसे कठिन माने जाने वाले पेशे यानी फौज में भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराएं.

लेकिन महिलाओं की ऐसी भूमिका पर ही नहीं, बल्कि उनकी कुल उपस्थिति को लेकर भी तमाम ऐतराज और आशंकाएं फिलहाल कायम रही हैं पर सबसे ज्यादा मुश्किल उन्हें लेकर पुरुषों के नजरिये की है, जिससे जुड़े हालात न सुधरे, तो शायद महिलाएं पूरे कामकाजी माहौल से ही गायब हो जाएंगी. गांवों-कस्बों से निकलकर छोटे-बड़े शहरों में महिलाओं ने कदम बढ़ाने का साहस इसलिए किया था कि वहां उन्हें हर मामले में आजादी मिलेगी और वे मनचाहा काम करते हुए पूरी तरह सुरक्षित रहेंगी. महिलाएं भी ऐसे बदलावों से तालमेल बिठाने का प्रयास भी करती हैं. लेकिन इस जीवनशैली को अपनाते हुए महिलाओं को जिस स्तर की सुरक्षा और माहौल देने की जरूरत है- हमारे ज्यादातर शहर उस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति करने में लगातार नाकाम हो रहे हैं.



पुणे में रोशिमा की हत्या और कर्नाटक के बेंगलूर में नये साल के मौके पर कई युवतियों के साथ बदतमीजी के किस्सों से यह साफ जाहिर है कि शहरों की सुरक्षा महिलाओं की बदलती जीवनशैली के कतई अनुरूप नहीं है और उसमें तुरंत बड़े स्तर पर परिवर्तन की जरूरत है. असल में, गांव-कस्बों के मुकाबले शहरी महिलाओं की जिंदगी में कई गुना ज्यादा तब्दीलियां हाल के दशक में ही आई हैं. शहरों में न केवल कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत बढ़ा है, बल्कि वहां रह रही घरेलू महिलाओं की सार्वजनिक उपस्थिति में भी कई गुना इजाफा हुआ है.

पुणे में जिस युवा आईटी इंजीनियर को अपराधी मानसिकता वाले सिक्योरिटी गार्ड ने निशाना बनाया, वह बेशक कामकाजी थी. लेकिन ऐसे खतरे तो हर शहर में हरेक उस आम महिला को हैं, जो एटीएम से पैसे निकालने, घर का राशन लाने, स्कूल की फीस भरने या स्कूल टीचर से मुलाकात करने से लेकर बीमारी में बच्चों व घर के अन्य सदस्यों को डॉक्टर के पास ले जाने या अस्पताल में भर्ती कराने जैसे कई मुश्किल काम अकेले दम पर करती है.

इन बाहरी काम के लिए उन्हें घर से कोई मदद नहीं मिलती है, क्योंकि एकल परिवार की अवधारणा में ये सारी जिम्मेदारियां महिलाओं पर आ पड़ी है. हमारे शहरों के योजनाकारों को एक बार फिर इस बारे में सोचना होगा कि क्या सिर्फ  इन्फ्रास्ट्रक्चर के बल पर और रोजगार के अवसर देकर शहरों को आकषर्ण का केंद्र बनाया जा सकता है या फिर उन्हें शहरों की सामाजिक संरचना यानी सोशल इंजीनियरिंग के विषय में भी कुछ काम करने की जरूरत है. साफ है कि महिला उत्थान का काम केवल नारों और प्रतीकों से नहीं होने वाला है. कुछ करना है तो हकीकत को खुली आंखों से देखना होगा.

मनीषा सिंह


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