विश्लेषण : पेश होने दें बजट को
पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव तारीखों की घोषणा के साथ सरकार द्वारा 1 फरवरी को बजट पेश करने के निर्णय का विपक्षी दलों द्वारा विरोध किया जा रहा है.
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विपक्षी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग से मिला. ऐन चुनाव की प्रक्रिया के बीच बजट पेश करने को लेकर विपक्षी दलों को आशंका है कि सरकार इसमें ऐसी घोषणाएं कर सकती है, जो लोगों को आकर्षित करे और वे इससे प्रभावित होकर भाजपा और उसके साथी दलों को मत दे सकते हैं. यह आशंका अस्वाभाविक नहीं है.
चुनाव जीतने के लिए हमारे देश में क्या नहीं किया जाता. आप चुनाव में जनता को लुभाने के लिए अनेक तरह के वायदे करते हैं. कुछ वायदे घोषणा पत्रों में लिखकर होता है और कुछ भाषणों में बोलकर. इसका असर भी होता है. आखिर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने पिछले विधान सभा चुनाव में सबसे पहले लैपटॉप देने और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने का वायदा किया और यह नहीं कहा जा सकता कि उसका असर मतदाताओं के मनोविज्ञान पर नहीं हुआ. हमारे पास सस्ते गेहूं चावल से लेकर, रंगीन टीवी और केबल कनेक्शन, मिक्सर-ग्राइंडर तक के वायदे और उससे चुनाव के प्रभावित होने के प्रमाण हैं. अगर इस दृष्टि से विचार करें तो विपक्ष की चिंता जायज है.
यह तर्क भी दिया जा सकता है कि जब केवल वायदे से लोग प्रभावित हो जाते हैं तो बजट में तो ऐसी घोषणाएं होंगी, जिनका लागू होगा लगभग सुनिश्चित है. तो क्या वाकई चुनाव प्रक्रिया के बीच बजट प्रस्तुत करने की योजना स्थगित कर देनी चाहिए? 2012 में ऐसा हो चुका है. उस समय भी इन्हीं पांच राज्यों का चुनाव था और बजट जो सामान्यत: फरवरी के अंतिम दिन पेश किए जाने की परंपरा रही है, वह उत्तर प्रदेश चुनाव के बीच पड़ रहा था.
विपक्ष ने उस समय विरोध किया और संप्रग सरकार ने बजट चुनाव प्रक्रिया खत्म हो जाने के बाद 16 मार्च को प्रस्तुत किया. इसको आधार बनाकर यह तर्क देना आसान है कि जब उस समय की सरकार ने ऐसा किया तो वर्तमान सरकार को क्यों समस्या होनी चाहिए. वैसे भी चुनाव की घोषणा के साथ सभी दलों की आपसी सहमति से तैयार आचार संहिता लागू हो जाती है. इसमें चुनाव वाले राज्यों की सरकारें ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकतीं, जो जनता को मत देने के लिए प्रभावित करने वाला हो.
यह केंद्र पर भी लागू होता है. तो इसका ध्यान रखा जाना चाहिए. लेकिन केंद्र सरकार 1 फरवरी को बजट प्रस्तुत करने को लेकर संकल्पबद्ध दिखती है. वित्त मंत्री अरु ण जेटली ने साफ तौर पर कह दिया कि बजट प्रस्तुत करने में कोई समस्या नहीं है. उनका तर्क है कि लोक सभा चुनाव के पूर्व भी सरकार अतरिम बजट पेश करती ही है. जब अंतरिम बजट लोक सभा चुनाव के पूर्व प्रस्तुत हो सकता है तो राज्य चुनाव के पूर्व बजट प्रस्तुत क्यों नहीं हो सकता, जबकि इसका संबंध पूरे देश से है. यानी यह सीधे किसी राज्य से संबंधित नहीं हो सकता.
तो ये दो तर्क हमारे सामने हैं. फिर होना क्या चाहिए? सबसे पहले तो इस सच को स्वीकारना होगा कि हमारे देश की स्थिति ऐसी हो गई है, जहां हर वर्ष कुछ राज्यों का चुनाव होता है. इसके कारण समस्याएं पैदा हो रहीं हैं. इसी वर्ष इन पांच राज्यों के बाद हिमाचल प्रदेश और फिर गुजरात के चुनाव होने हैं. आचार संहिता हर बार लागू होती है. चुनाव आयोग चुनाव की घोषणा से लेकर चुनाव परिणाम तक एक लंबा अंतराल बनाए रखता है. इन चुनाव में ही देखिए, 4 जनवरी को चुनाव की घोषणा हुई और 11 मार्च को परिणाम के साथ इसका अंत होगा. यानी दो महीना सात दिन का पूरा समय चुनाव आयोग ने लिया है और इस बीच आचार संहिता लागू रहेगी.
हम क्या सोचते हैं इसका असर सामान्य विकास के कार्यों पर नहीं पड़ता? पड़ता है. इसका असर यह तो है ही कि राज्य सरकारें या केंद्र सरकार भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाती, जिससे लगे कि मतदाता प्रभावित हो सकते हैं. किंतु आचार संहिता के भय से कोई सरकार सामान्य विकास तक के कदम नहीं उठाती. यह किसी के हित में नहीं है. आखिर विकास के काम होंगे तो उसका लाभ सबको मिलेगा. जरा एक लोक सभा चुनाव से लेकर दूसरे लोक सभा चुनाव और उसके बीच आने वाले सभी राज्यों के विधान सभा चुनाव को साथ मिलाकर गणना कर लीजिए. आपको अंदाजा हो जाएगा कि कितने समय आचार संहिता लागू रहती है.
एक समय था जब इसका स्वागत किया गया. राजनीति में गिरावट से आम आदमी के बीच इतनी वितृष्णा थी कि लगा कि बिल्कुल ठीक हो रहा है. स्वयं राजनीतिक दलों में से किसी में भी इतना नैतिक बल नहीं बचा था कि वे कह सकें कि आचार संहिता के नाम पर सरकारों को आम विकास के काम करने से नहीं रोका जाना चाहिए. किंतु विवेकशील लोगों के लिए अब इसी आचार संहिता के कुछ बिंदु अस्वीकार्य हो रहे हैं.
यह आम प्रतिक्रिया है कि आचार संहिता अतिवाद की सीमा तक जा रहा है. निष्कर्ष यह है कि आचार संहिता तो हो, राजनीतिक दल और नेता चुनाव में उनका पालन करें, क्योंकि यह दलों एवं नेताओं को अवांछित कर्मो से रोकने का बहुत बड़ा आधार बन गया है. लेकिन उसे ऐसा बना देना कि सरकारें विकास का कोई कदम इसलिए नहीं उठाए; क्योंकि उस पर मतदाताओं को प्रभावित करने का आरोप लगेगा उचित नहीं है, यह किसी के हित में नहीं. राजनीतिक दलों के साथ इस देश में सक्रिय, जागरूक और प्रभावी मीडिया है, जो अपनी भूमिका निभाएगी. किंतु किसी दृष्टि से चुनाव के लिए बजट को रोकना उचित नहीं होगा.
ऐसी परंपरा बन गई तो फिर कई मांगे उठेंगी, मांगें बढ़ती जाएंगी और हर वर्ष जब-जब राज्यों का चुनाव होगा केंद्र पर दबाव बढ़ेगा. वैसी स्थिति में यह सोचिए कि देश का क्या होगा? और अंत में हम मतदाताओं के विवेक को भी न भूलें. यदि मतदाताओं के लुभावने वायदों से प्रभावित होने के उदाहरण हैं तो प्रभावित न होने के हैं. बिहार चुनाव के पूर्व प्रधानमंत्री ने बहुत बड़ा पैकेज घोषित किया था, लेकिन परिणाम पक्ष में नहीं आया.
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