‘हलाला’ की भारतीय परंपरा कुरआन मुख़ालिफ

Last Updated 13 Apr 2016 06:00:27 AM IST

मजहबीआधार पर देखा जाए तो इस्लाम ने मुस्लिम औरत को आजाद रखने के लिए कई तरह के पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकार कुरआन में लिखित तौर पे दिए हैं.


‘हलाला’ की भारतीय परंपरा कुरआन मुख़ालिफ

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस्लाम के अंदर औरतों का वजूद एक स्वतंत्र इकाई के तौर पे माना/मनवाया गया है (हमने आदम की हर औलाद पे बराबर से करम बख्शी है). दुनिया के कई इस्लामिक मुल्कों में वहां के सांस्कृतिक रिवाजों के मुताबिक़ मुस्लिम औरतों को कई तरह के हक़ कुरआन के आधार पर हासिल हैं-खासकर जायदाद में उनके हक़ को न सिर्फ तस्लीम (मंजूर) किया गया है, बल्कि इसे रिवाज में भी क़ायम किया गया है. सिर्फ भारत ही इकलौता ऐसा मुल्क है, जहां मुसलमानों की तथाकथित मज़हबी तंज़ीमें औरतों के मज़हबी हक़ों पे कुंडली मारे बैठी हुई हैं. अगर औरतों की तरफ से अपने दीनी हक़ की याद दिलाने की कहीं से हल्की आवाज भी की जाती है, तो ‘कुंडली’ वाले ज़हरीली फुफकार की तेज़ धार बहाने लगते हैं-मानो के ‘सनफे नाजुक’ (औरतें) दीन का ‘सफाया’ ही कर बैठेंगी. ये जाहिल लोग कभी तन्हाई में भी कुरआन को नहीं सोचते-के अल्लाह ने औरतों के हक़ बतौर एक ‘इंसानी वजूद’ किस तरह से मर्दों पे फर्ज किए हैं.

ग़ौरतलब है के मज़हब के स्वयंभू दारोग़ा बने ये लोग जानबूझकर ऐसा करते हों ऐसा भी नहीं है. दरअसल, भारत का मुसलमान अपने ‘पिछले’ सांस्कृतिक ताने-बाने से कभी बाहर निकल ही नहीं पाया. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाजी निजाम (व्यवस्था) अलिखित, अघोषित तौर पर मनुवादी, ब्राह्मणी विचारधारा से संचालित होता है. इसलिए यहां भी मर्दवादी, सामंती निजाम (व्यवस्था) मौजूद है, जहां गरीबों, दलितों, मजदूरों, औरतों को सवर्णो की बनाई व्यवस्था में उनकी मर्जी मुताबिक़, बतौर मातहत (अधीन)-‘खुश होकर’ रहना है, मगर अपने बदहाल हालात पर सवाल नहीं उठाना है, जबकि इस्लाम अपनी पैदाइश के वक्त से ही शिक्षा की न सिर्फ बात करता है, बल्कि सूरे अलक़ (इकरा बिस्मे रब्बेकल लजी) में शिक्षा, जागृति, आजाद समझ और सवाल उठाने की आदत पर जोर देता है, और इससे सामाजिक परिवर्तन के लिए बतौर सशक्त हथियार-हर मुसलमान मर्द, औरत, बच्चों, बूढ़ों को लैस करता है. समाज से ग़ैरबराबरी और जातिगत गुरूर को तोड़ते हुए साहबेमाल (धनवानों) को हुक्म देता है कि ‘अपनी जायदाद का बंटवारा करो तो गरीब रिश्तेदारों, पड़ोसी, यतीमों (अनाथ) बच्चों, औरतों को भी खुशी से कुछ दे दिया करो’.

औरतों से इतना जालिमपना क्यों
यह तो हुआ असली इस्लाम जिसकी किताब (कुरआन) के अंदर गैरबराबरी के खिलाफ बराबरी, अन्याय के खिलाफ न्याय, मुस्तदअफ़ीन (हाशिए पर धकिया दिए गए तबक़ों-गरीब, अनाथ, असक्षम, बूढ़े, बच्चे, गुलाम, औरतें) के लिए विशेष हमदर्दी और मोहब्बत का रवैया अपनाने की बात कही/लिखी गई है. ऐसे में इस्लाम के किसी भी जानकार, संजीदा (गंभीर), पढ़े-लिखे, बाहोश इंसान के गले के नीचे ये बात उतर ही नहीं सकती कि इस्लाम अपनी औरतों के लिए इतना ज़ालिम कैसे हो सकता है कि उसे इंसानी वजूद से खारिज करके किसी बेजान ‘सामान’ की तरह बरतने की हिमायत करेगा? तभी तो भारतीय मर्दवादी, सामंती समाज का अभिन्न हिस्सा बना हुआ भारतीय मुसलमान, अपनी औरतों को ‘अर्धागिनी’ और बेटियों को ‘पराया धन’ मानने से कैसे इनकार कर सकता है?

भले ही मुसलमान मर्द को औरत (एक स्वतंत्र इकाई) का शरीकेहयात (जिंदगी का साथी), हमसफर, औलिया (दोस्त) और दोनों को एक दूसरे की ‘पोशाक’ क्यों न बना दिया गया हो. मगर फि़र भी वह औरत को बतौर गुलाम ही देखता, महसूसता और रिश्तों में बरतता आया है. इसीलिए औरत उसकी नजर में भी ‘अंकशायिनी’, ‘ग़ुलाम’ और पैर की ‘जूती’ है, जिसे सर पे नहीं रखा जा सकता.  और इसी ग़ैरइस्लामी, मर्दवादी, सामाजिक निज़ाम के डंडे से, कुरआन और ‘सही’ हदीसों के मुताबिक़ ‘अधिकार संपन्न’ मुस्लिम औरतों के इंसानी, समाजी, हकूक को न सिर्फ बेरहमी से कुचला जाता है, बल्कि कई जगह पर तो उसे मज़हब के नाम पर अमानवीय ‘परंपराओं’ की बलि भी चढ़ाया जाता है.

औरत की ग़ैरमौजूदगी में चिट्ठी, फोन, एसएमएस के जरिए उसकी रज़ामंदी के बग़ैर, उसे बताए बग़ैर एक तरफ़ा तलाक़ दे देना, एक साथ तीन तलाक़ बोलकर, बिना इसकी परवाह किए कि वह हामला (गर्भवती) है, बिना मेहर और जायज़ नाननफका दिए, (छोटे बच्चे हैं तो उनकी जायज़ परवरिश का आर्थिक इंतेजाम किए बगैर) ‘गैरउपयोगी’ जानवरों की तरह, उसे जबरन घरों से बाहर खदेड़ देना यहां चलन में आम है-किसी को इसमें कुछ भी ग़लत या गैरइस्लामी नहीं लगता. मज़हबी तंज़ीमों के दारोग़ाओं को भी नहीं.

किसी तलाक़शुदा औरत के शौहर को अगर कभी अपनी गलती का एहसास हो भी जाए और वो अपनी बीवी के साथ फिर से रहना चाहे तो ‘हलाला’ नाम की एक ऐसी घिनावनी परंपरा भारतीय मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के अंदर चलन में है कि उसे सोच कर भी रूह कांप जाए. ज्यादातर मुस्लिम मर्द पहली बीवी से पीछा छुड़ाने के लिए ही तलाक़ देते हैं. अगर सैकड़ा में कहीं कोई एक मर्द अपनी भूल मानते हुए, कभी चाहे कि उसकी पहली बीवी ही उसके लिए सही थी, ये सोचकर अगर वह उसकी तरफ़ जाए और पता चले कि उसने किसी दूसरे से निकाह किया हुआ है-अगर ख़्ाुदा न ख़्वास्ता दूसरा मर्द अपनी किसी वजह से उसे तलाक़ दे दे तो फिर पहला शौहर औरत की इददत पूरी होने पर अपना पैग़ाम भेजकर उस पहली बीवी से निकाह कर सकता है. वर्ना कोई सूरत नहीं है-मर्द को अपनी भूल का गुनाह लिए पछताते हुए ही दुनिया से जाना होगा.

‘खूबसूरत कांसेप्ट’ दागदार
मगर भारतीय मज़हबी दारोग़ाओं ने इस्लाम के इस ‘खूबसूरत कांसेप्ट’ को औरत विरोधी बना दिया है. कुरआन में मर्द को उसके ‘मर्दानगी ग़ुरूर’ से खबरदार करते हुए ही तलाक़ जैसे हालात पे दोनों तरफ़ के सुलह चाहने वाले संजीदा, समझदार, ग़ौरोफिक्र से समझाइश और सुलह की कोशिश करने वाले लोगों के साथ 3 महीने की गुंजाइश रखी गई है, ताकि एक तलाक के बाद 30 दिन के वक्त में शौहर और बीवी उन मामलों पर ग़ौर करें और उन्हें दूर करने की कोशिश की जाए. न हो पाए तो फिर दूसरी तलाक़ और फिर 30 दिन दोनों की तरफ के लोगों की समझाइश, सुलह की कोशिशें. कुरआन में लिखा है ‘सुलह की कोशिशों में हो सकता है अल्लाह कोई नरम बात डाल दे और झगड़ा ही सुलट जाए जिसके लिए अलग होने की नौबत आई है, और दोनों फिर से खुशी से साथ रहने लगें.’ लेकिन फि़र कुरआन में मर्द को सख़्ती से चेताया गया है कि उसकी जिंदगी में ऐसे सुहाने मौक़े सिर्फ दो बार ही आ सकते हैं-(अत्तलाक़ो मर्रतान-तलाक़ सिर्फ़ दो मर्तबा है).’ जब वह झगड़े के बाद अपनी गलती पे शरमिन्दा होकर अपनी बीवी के साथ सुलह करके रह सकता है. इसलिए वह अपने मिज़ाज और ग़ुस्से को क़ाबू में रक्खे.  खेल समझ कर या औरत को धमकाने के लिए बार-बार इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. अल्लाह के नज़दीक हलाल चीजों में तलाक़ सबसे नापसंदीदा अमल है. इसीलिए कुरआन में बार-बार मर्दों को ताईद की गई है कि तलाक़ का फैसला बहुत सोच-समझकर, समझाइश, रूजूअ (सुलह), सुधार के सारे रास्ते बंद हो जाने के बाद ही, शौहर और बीवी की आपसी रज़ामंदी से लिए जाने की बात कही गई है.’ ये है तलाक़ का सही तरीक़ा और रूजूअ (सुलह) की ईमानदार कोशिशों का तरीक़ा जो कुरआन और ‘सही’ हदीसों में मिलता है.

मगर भारतीय इस्लाम में हलाला के नाम पर नाजायज़ तरीक़े से निकाह करवाना और शर्तिया तौर पर एक रात के लिए तलाकशुदा लड़की/औरत से जिस्मानी ताल्लुकात बनवाने के ‘बाद’ तलाक दिलवाने वाले रैकेट भी सक्रिय हैं, जो सो-कॉल्ड मज़हबी दारोग़ाओं की सरपरस्ती में फलने-फूलने को बेताब हैं. (अगर तलाक़ के बाद दोबारा उसी बीवी के साथ रहने वाले मर्दों की तादाद बढ़ जाए). कैसा ग़ैरइस्लामी ग़ैरशरई चलन आम कर दिया है इन जाहिल ठेकेदारों ने.

मज़हब के नाम पे-तीन महीने के अंदर भी अगर शौहर तलाक़ देने की अपनी गलती को सुधार कर फिर साथ रहने की ख़्वाहिश जताए तो उसे जज्बाती तौर पे डरा धमका, पैसे ऐंठकर, दोबारा निकाह करवाने का झांसा  देकर, पहली बीवी के घर वालों को लोक-लाज का डर दिखाकर किसी ग़ैर अंजान मर्द से लड़की/औरत का उसकी मर्जी के खिलाफ, जबरदस्ती निकाह करवाना, फिर उसके साथ जबरदस्ती जिस्मानी ताल्लुक क़ायम करवाने के बाद उससे तलाक दिलवा कर (यहां भी लड़की/औरत की मर्जी शामिल नहीं) उस पहले शौहर से उसका निकाह करवाना. इसे संगठित सेक्स रैकेट के अलावा क्या कहा जाएगा?

औरत की मर्जी-नामर्जी से नहीं मतलब
दरअसल, निकाह, औरत-मर्द, दोनों की मर्जी, समाज और विशेष गवाहों की मौजूदगी, मंजूरी से होता है. मगर वहीं तलाक़ एकतरफ़ा, बग़ैर औरत की मजबूरी और मंज़ूरी लिए किया जाना और कजि़यात में बैठे ठेकेदारों का सिर्फ शौहर की ज़बानी सुनी कहानी को बग़ैर औरत से तस्दीक किए तलाक़नामा ‘फराहम’ किया जाना भी तो संगठित अपराध है, जो कुरआन, ‘सही’ हदीस और शरीअत के ही खिलाफ नहीं है, बल्कि हमारे मुल्क के कानून की नज़र से भी मुजरिमाना चलन है. ये क्या कम अफसोसनाक है कि ‘हलाला’ के इस पूरे कार्यक्रम में ‘उस’ औरत को कोई मर्जी कोई मंजूरी ली ही नहीं जाती. उसे तो बस ‘सुनो ये करना है तुम्हारी (बच्चों की) बेहतरी इसी में है’ का हुक्म सुना दिया जाता है.

और वो लड़की/औरत बचपन में पिता के अधीन, जवानी में पति के अधीन और बुढ़ापे में बेटे के अधीन होने जैसी परंपरा की वाहक के तौर पे चुपचाप खून का घूंट पीकर, ये अपमानजनक रिवाज निभाती चली जाती है. लेकिन क्या ये सब कर चुकने के बाद भी उसे ससुराल में, शौहर की नज़र में इज्ज़त, परिवार में सुकून या खुशी नसीब होती है? इसके बदले उसे मिलते हैं कुछ नए तरह के उलाहने, ताने, कितनों के साथ ‘सो’ कर आई है बदज़ात..जिस्म के साथ मजरूह (घायल) रूह लिए जुल्मोजबर का अंतहीन सिलसिला लिए इस रिश्ते की दोबारा वही गति तलाक़, तलाक़, तलाक़.!

मगर इस बार वो ग़रीब सिर्फ किसी की मुतल्लक़ा (तलाक़शुदा) ही नहीं रह जाती बल्कि एक वेश्या की तरह हो जाती है, जिसे उसकी गली या खानदान का हर दूसरा मर्द अपने लिए आसान शिकार समझ उसपे झपट पड़ने का कोई मौक़ा मज़ाक़ में भी नहीं छोड़ना चाहता. मोहल्ले के बदज़ात शोहदे उसका राह चलना दूभर किए देते हैं. घरवाले भी उसे अपनी बदनामी का सबब मान, बोझ समझते हैं और फि़र मायके में शुरू होता है जि़ल्लत और घरेलू हिंसा का वो सिलसिला जो उसे अपनी जिंदगी को खत्म करने पे मजबूर कर देता है, या वो खुद ही किसी बेजोड़ मर्द के आसरे बैठ जाती है. इन सबसे दूर नज़दीक की खनक़ाहों में गद्दीनशीन, सफेद बुर्राक़ उन मजहबी दारोग़ाओं को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता-उनकी बोटी और रोटी में कोई रुकावट नहीं आती. जिसे ठूंसकर वे अपने ‘मठों’ के अंदर ऐश की जि़ंदगी गुज़ारते हैं.

वो इस्लाम जिसने पैदा होते ही हर एक बेटी को उसके बाप की जायदाद, भले ही वो एक टूटा बरतन ही क्यों न हो, में भाई की तरह हक़ क़ायम कर दिया है. उसके मानने का दावा करने वाले मर्दज़ाद हमेशा उसका हक़ मारकर अपने बेटों को सुपुर्द करते रहे हैं. शादी के वक्त और दहेज के नाम पे गैर जरूरी ख़्ार्च करके अपनी शान बघारते हुए, उस लड़की का जायदाद में हक़ हड़प कर जाते हैं (खुद लड़कियां भी जानकारी न होने से या झिझक, मायका बचा रहने के एवज में ये बातें नहीं करतीं, अगर दबे लफ्ज़ों में करती भी हैं, तो लोकलाज का डर दिखाकर उन्हें खामोश कर दिया जाता है). शादी में फिजूलखर्ची करने के बजाए,

ग़ैरइस्लामी दहेज की परंपरा को खत्म करते हुए अगर बाप-मां वही पैसे लड़की के नाम कुछ बरसों की ‘एफडी’ बनवा दें तो लगातार बढ़ते तलाक़, ससुराल में मारपीट, मायके से मौके-बेमौके की जाने वाली डिमांड पूरी न की जाने पर होने वाली मारपीट, घरेलू हिंसा जैसे मामले ख़्ात्मे की तरफ़ होंगे..सबसे बड़ी बात यह होगी कि इससे हमारी बेटियों को भरपूर ताक़त मिलेगी. उनके अंदर खुद एतमादी (आत्मविश्वास) आएगी. हालात चाहे जैसे हों, उनका मुक़ाबला करने का हौसला उसमें आएगा जिससे आने वाली पीढ़ियों में परजीवी, गुलाम ज़हनियत में भी कमी आएगी.

जुलैखा़ जबीं
सामाजिक कार्यकर्ता


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