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03 Aug 2015 05:42:44 AM IST
Last Updated : 03 Aug 2015 05:56:03 AM IST

शिक्षा और शोध की गुणवत्ता पर सवाल

 
शिक्षा और शोध की गुणवत्ता पर सवाल.

पिछले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति ने उच्च शिक्षा से जुड़ी एक रिपोर्ट पेश की है.

रिपोर्ट में समिति ने देश में शोध और उच्च शिक्षा की स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की  है. साथ ही पीएचडी धारकों की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाए हैं. समिति ने यह भी कहा है कि आखिर उच्च शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने के लिए उपयुक्त उम्मीदवार क्यों नहीं मिल पा रहे हैं? उसने शोध मूल्यांकन की पूरी व्यवस्था पर फिर से गौर करने का सुझाव दिया है. ज्ञात हो कि देश में हर साल सात हजार से अधिक छात्रों को पीएचडी की उपाधि प्रदान की जाती है. समिति ने मंत्रालय से शोध की गुणवत्ता के बारे में मूल्यांकन रिपोर्ट देने के लिए भी कहा है.

सही बात तो यह है कि उच्च शिक्षा की कुछेक संस्थाओं को छोड़कर अधिकांश संस्थाएं छात्रों के प्रवेश, परीक्षा और डिग्री बांटने तक ही सीमित होकर रह गई हैं. देश में आज 700 विश्वविद्यालय और इनसे जुड़े तकरीबन 36 हजार महाविद्यालय कार्यरत हैं. इनमें लगभग तीन करोड़ से भी अधिक छात्रों का नामांकन हैं. इस प्रकार यह देश की उच्च शिक्षा के सकल नामांकन अनुपात का 22 फीसद बैठता है. इस नामांकन का वर्तमान कक्षावार विभाजन बताता है कि 74 फीसद छात्र विज्ञान, वाणिज्य व कला स्नातक के तीन वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए नामांकित किए जाते हैं. दूसरी ओर कुल नामांकित छात्रों का छठा हिस्सा इंजीनियरिंग के लिए तथा मात्र 10 फीसद शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, कानून इत्यादि के लिए नामांकित होता है. हैरत की बात यह है कि 12 फीसद छात्र स्नातकोत्तर डिग्री तथा मात्र दो फीसद ही पीएचडी डिग्री और डिप्लोमा के लिए प्रवेश लेते हैं. इन सबके बावजूद लाखों छात्र प्रवेश के लिए रह जाते हैं. ये सभी छात्र अध्ययन के लिए या तो स्ववित्त पोषित संस्थाओं की ओर रुख करते हैं अथवा प्राइवेट परीक्षा के माध्यम से डिग्री प्राप्त करते हैं.

उच्च शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता श्रेष्ठ शिक्षकों की नियुक्ति, उनका पठन-पाठन, शोध कार्य व शिक्षक-छात्र के उचित अनुपात पर निर्भर करती है. मानव संसाधन मंत्रालय के ताजा आंकड़ों से ज्ञात होता है कि देश के आईआईटी, आईआईएम, एनआईआईटी, आईआईएससी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान औसतन 35 फीसद फैकल्टी कमी से जूझ रहे हैं. तकलीफदेह बात यह है कि इस मामले में आईआईटी सबसे अव्वल है जहां 39 फीसद शिक्षकों के पद रिक्त हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 38 फीसद शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं. इस मामले में राज्य विश्वविद्यालयों की हालत और भी खराब है. जहां तक शिक्षक-छात्र अनुपात का सवाल है तो यह यूजीसी के मानकों के अनुसार स्नातकोत्तर स्तर पर 12 छात्रों पर एक शिक्षक तथा स्नातक स्तर पर 15 छात्रों पर एक शिक्षक निर्धारित है. परंतु आंकड़े बताते है कि वर्तमान में यह अनुपात 23 छात्रों पर एक शिक्षक है. आंकड़े संकेत देते हैं कि 2030 तक उच्च शिक्षा में ग्रॉस एनरोलमेन्ट रेशियो बढ़कर 30 फीसद तक जा सकता है. ऐसे में देश को लगभग 800 विविद्यालयों और 70 हजार महाविद्यालयों की जरूरत होगी. अभी से चिंता यह है कि इतना बड़ा लक्ष्य पूरा कैसे होगा.

संसदीय समिति ने ऐसे समय में उच्च शिक्षा की दशा पर सवाल उठाए हैं जब दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कहीं नाम नहीं है. गौरतलब है कि दुनिया में कैंब्रिज, आक्सफोर्ड व हार्वर्ड जैसे संस्थान अपने शिक्षण व शोध की गुणवत्ता के कारण ही विव में अपना शीर्ष स्थान बनाए हुए हैं. भारत की स्थिति यह है कि यह विकसित देशों से अभी बहुत पीछे है. आज दुनिया के विकसित देश अपनी उच्च शिक्षा पर अपने कुल बजट का नौ से दस फीसद तक खर्च कर रहे हैं. परंतु भारत में राष्ट्रीय आय का एक फीसद से भी कम उच्च शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है. 1964 में शिक्षा में सुधारों के लिए बने कोठारी कमीशन ने शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का छह फीसद खर्च करने का सुझाव दिया था. भारतीय ज्ञान आयोग ने भी अपने सुझाव में उच्च शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का 1.5 फीसद खर्च करने की बात कही थी. परंतु हम उच्च शिक्षा पर खर्च को एक फीसद तक भी पहुंचा नहीं पाए हैं. यह अनुमान स्वत: लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा के इतने सीमित बजट में कैसे शिक्षण और शोध की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है.

गौरतलब है कि आज दुनिया के ताकतवर व समृद्ध देशों की सफलता का कारण उनकी विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा ही है. अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, सिंगापुर, ब्रिटेन व ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की आर्थिक प्रगति को वहां की विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा से जोड़कर ही देखा व समझा जा सकता है. विशेषता यह है कि इन देशों के संस्थान कक्षा के शिक्षण की तुलना में शोध और अनुसंधान पर अधिक ध्यान देते हैं. भारत में इसका ठीक उल्टा है. यहां शोध व अध्ययन की गुणवत्ता की तुलना में सारी कवायद वर्ष भर  छात्रों के प्रवेश, परीक्षा व डिग्री तक ही सीमित रह जाती है. शोध से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि ब्रिक्स देशों में केवल भारत ही ऐसा है जहां शोध पर कुल जीडीपी का मात्र 0.9 फीसद खर्च किया जाता है. चीन में इस पर 1.9 फीसद, रूस में 1.5 फीसद, ब्राजील में 1.3 फीसद तथा दक्षिण अफ्रीका में 1.0 फीसद धन खर्च होता है. इन्ही वजहों से राष्ट्रीय उच्च शिक्षा मूल्यांकन परिषद ने भी अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में साफ किया है कि भारत में 68 फीसद विश्वविद्यालयों और 90 फीसद कॉलेजों में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता या तो मध्यम दर्जे की है या दोषपूर्ण है. इन संस्थानों के 75 फीसद डिग्रीधारी छात्र बेरोजगार हैं. पिछले दिनों कई रपटों ने खुलासा किया है कि देश के 60 फीसद विश्वविद्यालयों और 80 फीसद कॉलेजों से निकले छात्रों के पास न तो तकनीकी कौशल है और न ही भाषा की दक्षता. यही कारण है कि ऐसे छात्र उचित रोजगार के लायक नहीं पाए गए हैं.

 उच्च शिक्षा केवल  पठन-पाठन और शिक्षण का ही माध्यम नहीं है, बल्कि इसका सीधा संबंध शोध की दिशा व उसकी गुणवत्ता से है. पिछले दो दशकों में देश में शिक्षा का जैसा व्यावसायीकरण हुआ है उसने तमाम उद्योगपतियों को रातों-रात शिक्षाविदों में रूपांतरित कर दिया. परिणामत: उच्च शिक्षा का काफी बड़ा हिस्सा पूंजीगत उद्योग में बदलता चला गया और मुनाफा इस कारोबार का बड़ा हिस्सा बनकर उभरा. कुछेक उच्च शैक्षणिक संस्थानों को छोड़ दें तो बाकी संस्थानों की छवि लगातार धूमिल ही हो रही है. वहां पढ़ाई-लिखाई की बात तो दूर ये संस्थान राजनीति के बहुत बड़े अड्डे बन गए हैं. इन्हीं वजहों से यूजीसी की उपादेयता पर भी प्रश्नचिह्न लगने शुरू हो गए हैं. निश्चित ही देश की उच्च शिक्षा के मूल्यांकन का यह उचित समय है. हमें आज राष्ट्रीय जरूरतों के अनुरूप उच्च शिक्षा के ढांचे को वैश्विक रूप प्रदान करने की महती आवश्यकता है. साथ ही अपनी संस्थाओं को बेहतर बनाने के लिए ढांचागत, शोध श्रेष्ठता, शिक्षक-छात्र अनुपात व मानकों के अनुरूप शिक्षकों की अविलंब नियुक्ति जैसे मुद्दों पर गंभीरता व त्वरित गति से काम करके उच्च शिक्षा की दशा को सुधारा जा सकता है.

 

 


विशेष गुप्ता
लेखक
 

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