प्रकृति में मां देखने की अनुभूति

Last Updated 28 Sep 2014 12:22:28 AM IST

प्रकृति मां है. मां प्रथमा है. हम सब मां के अंग हैं. मां का ही विस्तार हैं. मां न होती तो हम न होते. मां सृष्टि प्रकृति की आदि अनादि अनुभूति है.


प्रकृति में मां देखने की अनुभूति

मां दिव्य है. मां का अनुभव दिव्यता है. तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने ठीक ही मां को देवता कहा है. देवता दिव्यता की ही घनीभूत अनुभूति है. जहां-जहां दिव्यता, वहां-वहां देवता. प्रकृति का सवरेत्तम है दिव्यता. पृथ्वी प्रकृति का ही अंश है इसलिए पृथ्वी भी माता है. जल सृष्टि सृजन का प्राचीन घटक है. ऋग्वेद में जल भी माताएं- आप: मातरम् हैं. माता अपने स्वभाव से ही दाता व विधाता है. जीवन प्रकृति का अनुग्रह है. प्रकृति देवी है. माता है. इस माता का ऋण है हम पर. अनुकंपा के प्रति धन्यवादी बने रहना भारतीय संस्कृति है. प्रकृति का दोहन, शोषण यूरोपीय सभ्यता है. प्रकृति का पोषण, संवर्धन भारतीय परंपरा है. व्रत, ध्यान आदि आस्था के विषय हैं. मुख्य बात है- प्रकृति में मां देखने की अनुभूति. यह अनुभूति सर्वभूतेषु मातृरूपेण प्रतीति है. यही देवी उपासना है.

देवी उपासना प्रकृति का ही नीराजन है. दुर्गा सप्तशती (पांचवे अध्याय) में कहते हैं, जो परम दिव्यता देवी मां के रूप में हरेक तत्व में उपस्थित है, उन्हें अनेक बार नमस्कार है- या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नम:. यह दिव्यता अनेक रूपों में भी प्रकट होती है, अनेक भावों में भी उगती है. ऋषि गाते हैं जो देवी लज्जा, क्षमा और चेतना आदि के रूप में सभी तत्वों में उपस्थित हैं, उसे अनेक नमस्कार हैं. ये नमस्कार भावजगत की गहराई से उगे हैं. देवी दर्शन में सामने मूर्ति होती है. देखने में ही यह मूर्ति है, दर्शन में नहीं. हम मूर्त शरीर में यंत्र हैं लेकिन भीतर मंत्र हैं. मूर्ति के पार विराट अस्तित्व है. अस्तित्व मां है. हम उसके अंश. अन्य उपासनाओं में हम तरल सरल नहीं होते. मां उपासना में सुविधा है. हम शिशु हैं और अस्तित्व मां. प्रकृति दिव्य है, इस दिव्यता की अनुभूति दिक् -काल में नहीं रहने देती. यही अनुभूति नमस्तस्ये नमस्तस्ये, नमो नम: में प्रकट हुई है.

प्रकृति में अनेक रंग, अनेक रूप. गीत एक है और छंद अनेक. गंगा एक घाट बहुतेरे. जल एक है  नदी, पोखर, झील, समुद्र, बादल, वर्षा अनेक रूप हैं. प्रकृति के सभी रूप एक ही चेतना का प्रकटीकरण हैं. या देवी सर्वभूतेषु चेतन विधीयते में सभी तत्वों में चेतना के रूप में उपस्थित देवी को नमस्कार है. सभी तत्व परस्पर अंतर्सबंधी हैं. महाऊर्जा एक है. वही दुर्गा है और वही महालक्ष्मी, काली या सरस्वती. हम अपनी सुविधानुसार प्रतीक चुनते हैं. छंदस प्रिय वीणावादिनी सरस्वती में मातृत्व देखते हैं और शक्ति अभीप्सु दुर्गा में. धनप्रेमी लक्ष्मी के साथ जुड़ते हैं. लेकिन सारे रूप, प्रतीक या प्रतिमान हैं. हमारे चित्त का ही रूपायन.

प्रकृति सभी प्राणियों की जननी है. डॉ. राधाकृष्णन् ने गीता के भाष्य में कहा है- सभी जीवित रूपों की माता प्रकृति है. प्रकृति से हमारा संबंध मां और संतति का है. हमारे गुण प्राकृतिक हैं. सभी रूप प्रकृति के ही रूप हैं. हम अपनी सुविधा के लिए उन्हें अनेक नाम देते हैं. दुर्गा, काली, सरस्वती, शाकम्भरी, महामेधा, कल्याणी, वैष्णवी, पार्वती आदि-आदि. असली बात है- मां. या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नम:.

मां प्रत्येक जीव की आदि-अनादि अनुभूति है. मां की देह का विस्तार ही हम सबकी काया है. मां प्रत्यक्ष ब्रह्म है. आत्मीय ब्रह्म है. भारतीय परंपरा का ईश्वर या भगवान सुपरिचित शक्ति नहीं है. उसकी स्तुति भी ‘त्वमेव माता-आप माता हैं’ से शुरू होती है और त्वमेव पिता, तक विस्तार पाती हैं. अस्तित्व का सबसे बड़ा गुण है मां जैसा होना. मां स्वाभाविक ही दिव्य हैं. देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं. मार्कडेय ऋषि ने ठीक ही दुर्गा सप्तशती (अध्याय 5) में ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता’ बताकर ‘नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नम:’ कहकर अनेक बार नमस्कार किया है. हम मां का विस्तार हैं. सप्तशती में संसार की सारी विद्याओं को भी मां देवी देखा गया है- विद्या समस्ता तव देवि भेदा. जो देवी सभी तत्वों में मां के रूप में उपस्थित है, उसे बार-बार नमस्कार है- या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नम:.

हृदयनारायण दीक्षित
लेखक


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