बाढ़ की विभीषिका और जलवायु परिवर्तन

Last Updated 18 Sep 2014 12:38:22 AM IST

भारत की ढाल और मस्तक कहा जाने वाला हिमायल पिछले कुछ वर्षों से गंभीर प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहा है.


बाढ़ की विभीषिका और जलवायु परिवर्तन

यह सभी प्राकृतिक आपदाएं वैसे तो अपना तात्कालिक प्रभाव स्थानीय स्तर पर ही दिखा रही हैं, पर दूसरी ओर  भारतीय उपमहाद्वीप में गंभीर जलवायु परिवर्तन का संकेत दे रही हैं. प्रत्येक वर्ष जून के प्रथम सप्ताह में हिंद महासागर से चलने वाला और बंगाल की खाड़ी से होता हुआ हिमालय की कंदराओं से टकराकर मैदानी भागों को सराबोर करने वाला मानसून कहीं गुमसुम-सा हो गया है. समाचार मीडिया से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक कितने दावे के साथ जम्मू कश्मीर में भारी बारिश एवं उससे उपजी तबाही को मात्र वहां की स्थानीय तबाही मानकर विलेषण कर रहे हैं.

ऐसे लोग मैदानी क्षेत्रों के उपजाऊ  इलाके या फिर बड़े-बड़े शहरों से ताल्लुक रखते हैं. क्या ये लोग बताएंगे कि यदि एक ओर जम्मू कश्मीर में हाल ही में पश्चिमी विक्षोम के कारण मानसून का एक साथ आ जाना एवं कम समय में सामान्य से कई सौ गुना अधिक बारिश हो जाना वहां की स्थानीय समस्या है, तो दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों विशेषकर उत्तर भारतीय भू-भाग के मैदानी क्षेत्रों में मानसून न आने का कारण क्या है? उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में सूखे की स्थिति के कारण खरीफ की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है. जिसके आर्थिक नुकसान का आंकलन किसी भी माध्यम द्वारा अभी तक प्रदर्शित नहीं किया गया है. मैदानी क्षेत्रों में उपजी सूखे की स्थिति आने वाली रबी की फसल को भी प्रभावित करेगी.

पिछले चार वर्षों में भारत का सरताज कहे जाने वाले हिमालय क्षेत्र में तीन बड़ी प्राकृतिक आपदाओं का प्रादुर्भाव हुआ है. छह अगस्त, 2010 को लेह में; 15 जून, 2013 को उत्तराखंड में तथा 6-7 सितम्बर, 2014 को जम्मू कश्मीर में भारी बारिश के कारण कई हजार लोगों की जान चली गई, लाखों लोग बेघर हुए तथा हजारों करोड़ के आर्थिक नुकसान के साथ-साथ बुनियादी संसाधनों का स्थायी तौर पर नुकसान हुआ है. हिमालय से जुड़ी इन तीनों प्राकृतिक आपदाओं का कारण भारतीय मौसम विभाग मानसून का पश्चिमी विक्षोम के साथ मिल जाना बता रहा है, जबकि सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट मौसम विभाग के इस विश्लेषण को नकारते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु परिवर्तन की तरफ इशारा कर रहा है. दूसरी तरफ राजनीति व धर्म से जुड़े हुए लोग ऐसी आपदाओं के कारण अवैज्ञानिक, अतार्किक व स्वार्थपरक ढंग से दे रहे हैं जिन पर रंचमात्र भी विश्वास नहीं किया जा सकता.

प्राकृतिक आपदाओं को धर्म, जाति, संप्रदाय व राजनीति के चश्मे से बिल्कुल नहीं देखा जाना चाहिए. हिमालय क्षेत्र के भू-भाग में इस तरह के परिवर्तन अप्रत्याशित व अवैज्ञानिक बिल्कुल नहीं हो सकते. बादल फटना, चट्टानों का खिसकना या एक निश्चित क्षेत्र में मानसून का सिमटकर भारी बारिश में तब्दील हो जाना, यह सब एक गंभीर समस्या की तरफ इशारा कर रहे हैं. इसके उत्तरवर्ती परिणाम अत्यधिक गंभीर व दूरगामी हो सकते हैं जो केवल हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र तक ही सिमट कर नहीं रह सकते.

भारत में विगत कुछ वर्षों से एक ओर भारी बारिश के कारण बाढ़ का प्रकोप हो रहा है, तो दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों में भयंकर सूखे के हालात पैदा हो रहे हैं जिससे वहां का जल स्तर लगातार घटता जा रहा है. घटते जल स्तर के कारण अकस्मात मैदानी क्षेत्रों में आए दिन जमीन धंसने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है, तो दूसरी ओर चट्टानों के खिसकने के कारण पृथ्वी के कंपन या भूकंप की घटनाओं की पुनरावृत्ति भी. मैदानी क्षेत्रों के कई महानगर, शहर व भू-भाग बदलती जीवन शैली व अतिशय रासायनिक प्रयोगों के कारण भयंकर प्रदूषण की चपेट में आते जा रहे हैं. यहां तक कि वहां के जल स्रेत भी जहरीले होते जा रहे हैं.

भारतीय उप महाद्वीप के हिमालय क्षेत्र से जुड़ी ये तीनों प्राकृतिक आपदाएं मानसून के पश्चिमी विक्षोम के साथ विलय हो जाने के कारण मात्र से ही घटित हुई हैं-ऐसा दावा पूर्णत: सत्य नहीं माना जा सकता. यदि मानसून का पश्चिमी विक्षोम के साथ विलय होना मान भी लिया जाए तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? उत्तर बड़ा आसान है. अंधाधुंध वनों के विनाश व पेड़ों के कटान के कारण पहाड़ के पहाड़ नंगे होते जा रहे हैं. जो वन पहले मानसून के सामने ढाल बनकर दीवार की तरह खड़े हो जाते थे, आज वह दीवार समाप्त हो चुकी है. मानसून आसानी से विपरीत परिस्थितियों के साथ विलय करके प्राकृतिक आपदाओं को जन्म दे रहा है.

पर्वतीय क्षेत्रों में खनन पदार्थों के दोहन व तीव्र औद्योगीकरण, सड़कों, पुलों, बांधों, जलाशयों व कंकरीट के मकानों के जाल ने एक ओर नदियों के स्वाभाविक मार्ग को अवरूद्ध किया, तो दूसरी ओर तीव्र भूस्खलन को बढ़ावा दिया. इन सभी कारणों से नदियां आए दिन अपने मार्ग में परिवर्तन करती रहती हैं, तो कई झरने या तो सूख गए हैं या चट्टानों के ढहने के कारण पूरी तरह से विलुप्त हो गए हैं. प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में पर्वतीय क्षेत्र के वासी तो उत्तरदायी हैं ही, पर मैदान के लोग तो इन संसाधनों का प्रयोग करना अपना अधिकार समझते हैं. मैदान के लोगों ने पर्वतीय संसाधनों का दोहन करके अपनी सुविधाओं में वृद्धि कर ली है तथा बड़े-बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को खड़ा कर लिया है.

वस्तुत: मनुष्य ने अपने विकास में ही विनाश की कहानी भी लिख दी है. भारतीय उप महाद्वीप के प्रत्येक वासी को आज से ही सचेत होना पड़ेगा. अन्यथा ये सभी प्राकृतिक आपदाएं एक गंभीर जलवायु परिवर्तन का संकेत दे रही हैं जिसके परिणाम एक न एक दिन मैदान सहित संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप को भी झेलने पड़ेंगे. पहाड़ों पर वनों का कटान पूरी तरह से बंद करना पड़ेगा, वनीकरण व वन संरक्षण को अभियान के तौर पर चलाना पड़ेगा. मैदानी क्षेत्रों में यूकेलिपटस की जगह वन संरक्षण बढ़ाने वाले पेड़ों को लगाना पड़ेगा. खनन को पूरी तरह से रोकना पड़ेगा. केवल नदियों के बहाव में आने वाली खनन सामग्री को चुगकर ही काम चलाना पड़ेगा.

अंधाधुंध मकानों, पुलों, बांधों, सड़कों का निर्माण रोकना पड़ेगा. पहाड़ों पर कंकरीट के मकानों के बजाए रेडीमेड मेटीरियल के मकान बनाए जाने चाहिए. मैदान के लोगों को अपनी जीवन शैली में बदलाव लाने होंगे. वाटर हार्वेस्टिंग के उपाय अपनाने होगें. जमीन के नीचे से जल दोहन को बंद करना पड़ेगा. ड्रिप इरिगेशन की पद्धति को लोकप्रिय बनाना पड़ेगा. रासायनिक पद्धतियों, वातानुकूलित संसाधनों व ईधन के रूप में तेल व कोयले का कम से कम प्रयोग करके कार्बन के उत्सर्जन को कम करके ओजोन परत को बचाना पड़ेगा.

प्लास्टिक के कचरे को कम करते हुए पर्वतीय क्षेत्रों में इसे पूर्णत: प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. मैदानों में भी इसके पृथक कूड़ेदान व संग्रह केंद्र बनाए जाने जरूरी हैं. ये सभी उपाय तत्काल रूप से भारतीय उप महाद्वीप के प्रत्येक नागरिक द्वारा अपनाकर ही बढ़ते जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम किया जा सकता है. अन्यथा यह कहावत चरितार्थ होने में देर नहीं लगेगी कि हम जिस पेड़ पर बैठे हैं उसी की शाखा को काटे जा रहे हैं.

पुष्प सेन सत्यार्थी
लेखक


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