हिंदी और हिंगलिश का द्वंद्व

Last Updated 25 May 2014 12:51:55 AM IST

एक अंग्रेजी टिप्पणीकार ने मोदी की भाषण कला के बारे में इस तरह लिखा है-‘करोड़ों लोगों की तरह मैं भी दम साधकर चुनाव के बाद के मोदी के भाषण का इंतजार कर रही थी.


हिंदी और हिंगलिश का द्वंद्व

मीडिया, विपक्ष, कॉरपोरेट और आम आदमी, चुनाव के सप्ताहांत में अपने-अपने ढंग से मोदी के भाषणों पर अपनी-अपनी राय देते ही, लेकिन जब मैंने वडोदरा और अहमदाबाद के भाषण सुने तो मैं मोदी की भाषण शैली से सम्मोहित हुए बिना न रह सकी! भाषण दोषरहित हिंदी में था तो भी उनके संदेश अपने तीखेपन और स्पष्टता के साथ राष्ट्र और जनता तक संप्रेषित हुए.

कहने की जरूरत नहीं कि इतने बड़े और लंबे चुनाव अभियान में मोदी या राहुल द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा हिंदी और उनकी संप्रेषणकला का अध्ययन इसलिए भी उपयोगी होगा कि उससे हम हिंदी की नई राजनीतिक व्याप्ति, उसकी ‘सामाजिक पूंजी’ बनाने की क्षमता, सामाजिक-राजनीतिक संपर्क भाषा बनने की उसकी नई क्षमता का पता लगा सकते हैं. हिंदी में मोदी की वक्तृता पर चरचाएं नहीं के बराबर हुई हैं लेकिन हमारे मत में मोदी ने यह चुनाव अपनी राजनीति के अलावा अपनी हिंदी के जरिए भी लड़ा. राजनीति के अलावा मोदी की ‘गुज्जू’ उच्चारण वाली देसी हिंदी की ‘भाषण शैली’ ने एक बड़ी भूमिका निभाई है. इसी के सहारे मोदी ने मतदाताओं के साथ ऐसा जीवंत ‘संपर्क’;कनेक्ट स्थापित  किया जिसे उनके स्पर्धी नेता राहुल कभी संभव न कर सके.

मोदी का चुनाव अभियान जितना मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया में चला, उसके समांतर या शायद उससे कहीं अधिक वह जमीन पर चला. उन्होंने साढ़े चार सौ रैलियां कीं और उनमें से हर एक में आधे घंटे से पौन घ्ांटे तक, कभी-कभी उससे भी ज्यादा समय तक भाषण दिए. अगर अपने कंजूस आकलन से हम एक रैली में एक लाख श्रोताओं की भी उपस्थिति का कुल जोड़ करें तो मोदी ने अपनी सकल रैलियों या जनसभाओं में लगभग एक तिहाई आबादी से सीधे संवाद किया. हिंदी क्षेत्रों से मिली कुल सीटें इस तथ्य की भी गवाही देती हैं कि अन्य रणनीतियों के अलावा वोट खींचने में उनकी रैलियों ने भी बड़ा योगदान किया.

मोदी के विरोधी, खासकर कांग्रेस और उसका नेतृत्व जब अपने जनसंपर्क की ‘कमी’ की बात करता है तो मोदी की जनसंपर्क शैली की तुलना में करता है. जब कांग्रेस के नेता कहते हैं कि हम इसलिए हारे क्योंकि हमारे नेता जनता से ‘कनेक्ट’ नहीं कर सके यानी कि ‘जनता से जुड़ने’ के काम में वे मोदी के मुकाबले कहीं नहीं ठहर सके. इस चुनाव में मोदी खुद मीडिया बन गए बल्कि वे अपना संदेश भी बन गए. जनसंपर्क करने के सुनियोजन और उनकी चुटीली भाषण शैली ने यह संभव किया. और यह सब हिंदी में हुआ! दक्षिण में भी वे हिंदी में बोले जिसका स्थानीय भाषा में अनुवाद किया गया. यह महत्वपूर्ण है.

चुनावों की भाषा माध्यम-अध्ययन का विषय कभी नहीं बनती. अपने यहां मीडिया अध्ययनों के स्तर की जो दयनीय स्थिति है उसके चलते यह संभव भी नहीं. वे ‘माध्यम’ के ‘माध्यम’, यानी भाषा जिसमें शब्द-भाषा और छवि-भाषा और उनके प्रभाव आदि शामिल हैं, को अनदेखा कर सीधे संदेश की यानी ‘राजनीति’ की बात करते हैं जबकि जनसंपर्क में भाषा और शैली एक बड़ी भूमिका निभाती है.

अब हम जरा इस चुनाव में दो बड़े नेताओं की भाषा, उनकी संवाद शैली, उनके जनसंचार, जनसंपर्क और उनके प्रभावों का सामान्य ढंग से आकलन करें. हम सबसे पहले राहुल की भाषण शैली को देखें- वे हर जगह ‘हमने ये दिया, वो दिया’ कहते थे. यह ‘दाता’ और ‘पाता’ की भाषा थी जो कहती थी कि चूंकि हमने ये-ये दिया है इसलिए तुम हमें ‘थैंक्यू’ यानी वोट दो. चुनाव के परवर्ती दौर में राहुल की भाषा में ‘खतरादर्शन’ की बातें बढ़ गई जो उनके स्वर को सकारात्मक  नहीं  बनने देती थीं. ऐसे निराशावादी संवाद अधूरे और असंतोषजनक महसूस होते रहे.
अब हम उनकी प्रयुक्त हिंदी भाषा की बात करें- राहुल ने भी सैकड़ों रैलियां कीं लेकिन उनकी हिंदी किताबी और ज्यादातर अनुदित हिंदी की तरह रही. उनके बोलने में ठेठ हिंदी का स्पर्श कभी नहीं आ सका. वे सामने की जनता को ‘भैया’ जरूर कहते लेकिन उनके अनेक वाक्य अंग्रेजी से हिंदी में अटपटे अनुवाद की तरह आते. यह कनेक्ट करने वाली भाषा नहीं बन सकी और राहुल के पास देसी कटाक्ष कम ही थे. उनकी हिंदी में मजा नहीं था.

राहुल की हिंदी और मोदी की हिंदी का फर्क आसानी से समझ में आता है. मोदी अपने हरेक भाषण में लोगों का ध्यान खींचने के लिए ‘भाइयो और बहनों’ कई-कई बार कहते. मोदी कटाक्ष, कटूक्ति, व्यंग्य विनोद, हिंदी के मुहावरे, चुटीले वाक्यों से काम लेते और स्थानीय जनता और जनपद के इतिहास से अपने को जोड़कर चलते. भले उनसे कुछ तथ्यात्मक भूलें भी होतीं लेकिन जनता को उनमें अपनेपन का आनंद आता. उन्होंने अपने विपक्षी नेता सोनिया और राहुल पर हर बार निशाना लगाया जो उनके हर भाषण का स्थाई भाव बन गया. वे ज्यों ही ‘मैडम सोनिया जी’ कहते त्यों ही लोग ताली पीटने लगते कि अब मजा आएगा. वे उनकी असफलताओं और दोषों को गिनाकर उनका उपहास उड़ाते और जनता उस उपहास में शामिल हो जाती. वे श्रोताओं में ‘तुरंता प्रतिक्रिया’ भी जगाते- ‘अगर मैं कुछ पूछूं तो बताओगे? अगर कुछ कहूं तो करोगे? अगर कुछ मांगू तो दोगे?’ और सुनने वाली जनता तुरंत हल्लाकर अपनी सहमति जताती.

राहुल की हिंदी में यह सब नहीं था. वह सूखी अंग्रेजी मिश्रित हिंदी होती. लगता कोई राजनेता रटकर आया है और बताने में लगा है कि उसने क्या-क्या किया है? कई बार तो वे जनता को बड़े-बड़े आंकड़े समझाने लगते. कहने का मतलब यह कि राहुल आम जनता के स्तर तक कभी नहीं आ पाए, जबकि मोदी आमजन से सीधे ‘कनेक्ट’ करके बोलते थे. इस चुनाव में शुष्क किताबी हिंदी और हिंगलिश हारी. ठेठ देसी और वाकपटु हिंदी जीती.

सुधीश पचौरी
लेखक


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