देश का गुस्सा और स्त्री अस्मिता

Last Updated 25 Dec 2012 12:19:27 AM IST

गैंगरेप की विभीषिका झेलती लड़की संभवत: किसी छोटे शहर से है जो करियर के सिलसिले में दिल्ली आयी होगी.


देश का गुस्सा और स्त्री अस्मिता

उसके आस-पास ऐसी तमाम लड़कियां होंगी जो पढ़ाई या नौकरी के लिए दिल्ली जाना चाहती होंगी. मैं भी जब पढ़ाई के सिलसिले में बलिया से बनारस, फिर दिल्ली गयी तो पड़ोस, गांव और रिश्तेदारी की कई लड़कियों को बड़े शहरों में हॉस्टल में रहकर पढ़ने का पथ प्रशस्त हुआ. जब मैं बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में स्नातक की छात्रा थी, अक्सर सहेलियों के साथ गंगा और उसके घाटों को देखने निकल जाती.

बावजूद इसके कि बनारस की सुबह बहुत मशहूर है, मेरी दिली इच्छा होती सोते हुए बनारस को देखने की. एक शहर जब सोता है, तब उसकी इमारतें क्या कहती हैं? घाटों की सीढ़ियों का स्पंदन रात की नीरवता में कैसा लगता होगा? एकदम अकेले सिर्फ अपने साथ होकर मध्यरात्रि में गंगा से संवाद की क्या गुंजाइश बनती होगी? गालिब से लेकर केदारनाथ सिंह की कविताओं तक का बनारस अपनी विशिष्टताओं और अंतर्विरोधों के कारण हजारों लोगों की तरह मेरे अंदर भी दुर्निवार आकषर्ण भरता था पर मैने हमेशा बनारस को उजाले और भीड़ में ही महसूस किया.

रात में शहर को महसूस करने की चाह मन में लिए बनारस छूट गया और मैं आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली रवाना हो गयी. दिल्ली जाते हुए भी दो चीजों से परहेज की हिदायत मिली-‘अंधेरा’ और ‘अजनबी.’  जब भी ऐसी बाते होतीं, मेरे सामने सबसे पहला सच उभरता कि मैं लड़की हूं और मुझे अपनी हिफाजत के लिए हर वक्त सावधान व चौकन्ना रहना है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय,

जहां रात के दो बजे लड़कियां आराम से परिसर के अंदर अकेले या समूह में टहल घूम सकती थीं, वहां भी परिसर के बाहर दिल्ली रात के आठ बजे के बाद महफूज नहीं रहती. आज से दस साल पहले मेरी एक दोस्त जो पूर्वी दिल्ली में नौकरी करती थी, को लौटने में कई बार रात के नौ-दस बज जाते तो डीटीसी बस से यात्रा के उसके अनुभव ऐसे होते कि वह अपनी आधी तनख्वाह टैक्सियों पर खर्च करने लगी.

सवाल है कि दस साल बीतें या बीस साल या फिर पूरी सदी- लड़कियों के लिए समाज के पुरुषवादी पितृसत्तात्मक रवैये में कोई फर्क नहीं आयेगा. वह सब कुछ हो सकती हैं लेकिन किसी पुरुष के समकक्ष इंसान नहीं. औरत की मादा गंध ही उनका सबसे बड़ा सच है. इसी को सबक सिखाने के लिए, बदला लेने के लिए, अपनी यौन जुगुप्सा शांत करने के कुछ मर्द हमेशा तैयार रहते हैं. कभी बलात्कार की वजह पोशाक होगी तो कभी चाल-चलन.

कभी अकेले होना होगा तो कभी सभी कथित मर्यादाओं को पार करना और अक्सर कोई वजह न होना सिवाय इसके कि दुराचारी के दिमाग में औरत ऐसी ‘ऑब्जेक्ट’ है जो भोग्या है. औरत के समूचे व्यक्तित्व को जननांग में सिकोड़ कर देखने की दृष्टि औरत को यौन हिंसा की वस्तु बनाती है.
औरतों के लिए समाज कभी सुरक्षित जगह नहीं रहा. घरों के अंदर तक मासूम बच्चियां सुरक्षित नहीं. पड़ोसी से लेकर रिश्तेदारों तक सबसे बचाकर रखने का भय एक मां के अंदर हमेशा मौजूद रहता है. कितनी घटनाएं कुल की इज्जत के नाम पर दबा दी जाती हैं.

थाना, पुलिस और कोर्ट तक का सफर बलात्कार पीड़िता के लिए दुगनी पीड़ा का सबब सिद्ध होता है. ऐसे-ऐसे सवाल कि कानून दोस्त की जगह दुश्मन लगने लगे. सबसे ऊपर यह कि बलात्कार पीड़िता सिद्ध करे कि उसके साथ बलात्कार हुआ. जहां दरिंदगी सरेआम हो, बीसों लोगों की भीड़ औरत के साथ हिंसा करे, वहां सब कुछ हो सकता है पर कानून का राज नहीं.  जहां कानून के राज का इकबाल बुलन्द हो, वहां दंड का भय ऐसी वारदातों को फौरी तौर पर रोक सकता है. समाज और पुरुष मानसिकता में बदलाव का सवाल तो इसके बाद आता है.

पर अफसोस, कानून का राज औरत की हिफाजत के मामले में सबसे कमजोर मालूम पड़ता है. सीआरपीसी में 2010 में बदलाव के बाद कई ऐसे प्रावधान किये गये हैं जो बलात्कार मामले में त्वरित न्याय की प्रक्रिया आसान बनाते हैं पर वो लोग जिनके ऊपर इस कानून को अमल में लाने की जिम्मेदारी है, स्त्री मुद्दों पर पर्याप्त संवेदनशील नहीं हैं. उन्हें अक्सर औरत का अकेले निकलना, प्रेमी के साथ घूमना, तंग कपड़े जैसे मुद्दे ज्यादा बड़ी वजह लगते हैं.

एक परिपक्व समाज में देह व्यापार करने वाली स्त्री के साथ भी उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन सम्बन्ध बनाना कुकृत्य होता है. पर ऐसा तभी मुमकिन है जब स्त्री को राज्य व उसकी संस्थाएं तथा समाज पुरुषों के बराबर का नागरिक माने. चरित्र के सारे मानदंड जहां सिर्फ औरतों के लिए हों, कुल की मर्यादा, इज्जत लुटना जैसी शब्दावलियों का विकास स्त्री की यौन शुचिता को आधार बना विकसित हुआ हो, ऐसी ही सामाजिक परिस्थितियों के बीच जिस समाज में पोनरेग्राफिक साइट्स सबसे ज्यादा सर्च होती हों, विज्ञापनों, फिल्मों और आइटम सांग में स्त्री की यौनिकता का चितण्रसबसे अधिक होता हो, वहां इन सारे अंतर्विरोधों को स्त्री ही सर्वाधिक झेल रही है.

एक तरफ स्त्री सशक्त हो रही है तो दूसरी तरफ समाज उसके लिए अधिक क्रूर और हिंसक हो रहा है. महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया आरंम्भिक दौर में है जहां औरत पुरानी रूढ़ियां तोड़ने की हिम्मत कर रही है. लड़कियां जब जीवन के फैसले खुद करने की हिम्मत पैदा कर रही हैं तो ऐसी घटनाएं उन्हें बहुत कमजोर कर देती हैं. एक दुर्घटना में बहुत सी लड़कियों की उड़ान की उम्मीदों के पंख कतर दिये जाते हैं. छोटे से शहर से दिल्ली गयी कोई लड़की अपने जैसी सैकड़ों लड़कियों की आंखों में सपने भरती है. अभिभावकों को बड़े शहरों में भेजने का भरोसा देती है पर जब कोई ऐसी दरिंदगी का शिकार होती है तो हजारों लड़कियों की सीमाएं तय हो जाती हैं.

इस समय पूरा देश गुस्से में है, दु:खी है. आरोपी पकड़े गये हैं पर हजारों-लाखों लड़कियों की आत्माएं वेंटीलेटर पर पड़ी हैं. ये अपने किसी भी पुरुष सहपाठी और सहकर्मी की तरह जीवन जीना चाहती होंगी पर उनकी देह का सच हमेशा की तरह उनके सामने है, कोई भी कभी भी दुराचारियों के हाथों पड़ सकती है. शायद मेरे जीते जी ऐसा समय आये जब मैं अपनी बेटी या पोती से कहूूं कि सोता शहर भी एक लड़की निशंक देख सकती है.

प्रीति चौधरी
लेखक


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