चुनावी तैयारी
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जातिगत जनगणना से विकास के विभिन्न क्षेत्रों में पीछे छूट गए लोगों की मदद की बात की।
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‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता और स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकी की सटीकता पर भी विचार रखे। सम्मेलन में मोदी के तीसरे कार्यकाल की पहली वषर्गांठ और सुशासन के मुद्दों पर भी चर्चा की गई। जातिगत जनगणना को लेकर सरकार ने अचानक अपनी रणनीति बदली है। 1931 के बाद देश में जातिगत जनगणना नहीं हुई, तब पिछड़ी जातियां 52% थीं। जाति आधारित राजनीति के पांव जमाने से पहले आजादी के तुरत बाद 1951 से दलितों व जनजातियों की अलग से गणना होने लगी।
जातिवादी राजनीति के हावी होते ही, विपक्ष लंबे अरसे से जातिगत जनगणना की मांग कर रहा है। जिस पर मोदी सरकार ने कभी रुख स्पष्ट नहीं किया। मगर संघ के जातिगत जनगणना के समर्थन में विचार देते ही सरकार ने इसकी घोषणा कर दी। तर्क है कि वंचितों के लिए नीतियां बनाने में आसानी होगी तो इसका विरोध करने वाले मानते हैं इससे समाज में दरारें आ सकती हैं। जातियों को वोट बैंक के नाम पर भुनाने वाले और आरक्षण समर्थकों के लिए नये मुद्दे उभर कर सामने आ सकते हैं।
वास्तव में अतिपिछड़ों व वंचितों के उत्थान के लिए उठाए गए कदम अपनी भूमिका निभाने में असफल नजर आते हैं। आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक सशक्तिकरण के बगैर समानता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। योजनाओं और प्रचार में अव्वल सरकार के लिए ये सिर्फ शिगूफे न साबित हों, यह ख्याल किया जाना जरूरी है। रही बात पाक से संघर्ष की तो इसके लिए सशस्त्र बलों के बलिदान और साहस पर समूचा देश भाव-विह्वल है।
मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों का फर्ज है, वे शहीदों व युद्ध प्रभावितों के परिजनों की भरपूर मदद में कोई कोताही न करें। दुश्मन मुल्क से लगी सीमा के रहवासियों को हुई जान-माल की भरपाई की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। बंद कमरों में आला-कमान की प्रशस्ति काफी नहीं कही जा सकती। हालांकि देश के राजनीतिक दलों में जिस तरह का अधिनायकवाद हावी है, वहां आंतरिक लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जबकि इन बैठकों में सरकारी योजनाओं व कार्यपण्राली की आलोचनात्मक बात होनी चाहिए और सरकारी सहायता पहुंचाने में जनप्रतिनिधियों में जिम्मेदारीपूर्णता से निर्वहन की खुली चर्चा होनी चाहिए।
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