विसंगति पर सवाल
मस्जिदों के इमामों को पारिश्रमिक देने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के 1993 के आदेश को केंद्रीय सूचना आयोग ने संविधान का उल्लंघन बताया है।
विसंगति पर सवाल |
ऑल इंडिया इमाम आर्गनाइजेशन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस आरएस सहाय की खंड पीठ ने वक्फ बोडरे को उनके द्वारा संचालित मस्जिदों के इमामों को पर्याप्त वेतन देने का आदेश दिया था। इस आदेश के आलोक में दिल्ली के अलावा हरियाणा और कर्नाटक समेत कई राज्यों ने इमामों के लिए वेतन दिए जाने का फैसला किया था। दिल्ली सरकार और दिल्ली वक्फ बोर्ड द्वारा इमामों के वेतन विवरण की मांग करने वाली एक अर्जी के जवाब में केंद्रीय सूचना आयुक्त उदय माहुरकर ने कहा कि ऐसा करके गलत मिसाल रखने के लिए साथ ही अनावश्यक राजनीतिक विवाद और सामाजिक वैमनस्य को बढ़ावा दिया गया है। यह अर्जी एक कार्यकर्ता आरटीआई के तहत दायर की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए उन्होंने कहा कि अदालत का यह आदेश संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है।
खास तौर से अनुच्छेद 27 का उल्लंघन किया गया है, जिसमें कहा गया है कि करदाताओं के पैसे का उपयोग किसी धर्म विशेष के पक्ष में नहीं किया जाएगा। ध्यान दिलाया गया है कि दिल्ली वक्फ बोर्ड दिल्ली सरकार से 62 करोड़ रुपये के करीब सालाना अनुदान लेता है। लेकिन अपने कई स्रोतों से उसे सालाना तीस लाख रुपये की मासिक आय ही हो पाती है।
इस तरह से देखें तो इमामों को 18 हजार और मुअजिनों (अजान देने वाले) को 16 हजार रुपये मासिक वेतन दिल्ली सरकार करदाताओं की ही कमाई से दे रही है।
केंद्रीय सूचना आयुक्त ने अपने आदेश की प्रति उपयुक्त कार्रवाई के लिए कानून मंत्री को भेजने का निर्देश दिया है, ताकि पुजारियों, पादरियों, इमामों और धर्माचार्यों के मासिक वेतन मामले में अनुच्छेद 25 से 28 तक के प्रावधानों को समान ढंग से लागू किया जा सके। धार्मिक स्थलों से जुड़े लोगों के सशक्तिकरण से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इन लोगों को सरकारी खजाने से इस प्रकार से वेतन दिया जाए कि उनके वेतनादि मदों पर एक समान पैसा नहीं मिल रहा है, तो यह सामाजिक सद्भाव और वैमनस्यता का कारण बनता है। इससे सर्व धर्म समभाव की अवधारणा का भी उल्लंघन होता है। उम्मीद करें कि जल्द ही इस विसंगति को दूर कर लिया जाएगा।
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