बलात्कार पर राजनीति
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने हाथरस कांड की जांच के लिए पहले एसआईटी टीम का गठन कर दिया था, लेकिन अब उसने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी है।
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प्रदेश प्रशासन के लोग भले ही मामले की निष्पक्ष जांच करते, लेकिन उस पर हर कोई विश्वास करता, यह कहना कठिन था। ऐसे में योगी सरकार का यह फैसला स्वागतयोग्य है, क्योंकि शासक का उद्देश्य शासन करना ही नहीं, जनता की नजरों में निष्पक्ष दिखना भी जरूरी होता है। उम्मीद थी कि सभी पक्ष इसका स्वागत करेंगे, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है। अब भी कुछ हलकों में न्यायिक जांच की मांग उठ रही है। अगर सरकार का उद्देश्य कुछ छिपाना न हो, तो उसे जांच एजेंसी को लेकर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए, लेकिन इस मसले पर जिस प्रकार चयनित राजनीति हो रही है, उससे संभव है कि दलित प्रश्न ही पृष्ठभूमि में न चला जाए।
अगर चयनित आधार पर राजनीति होती है, तो माना जा सकता है कि उसके पीछे किन्हीं ताकतों का कोई न कोई एजेंडा है। अगर इस आंदोलन के समय पर दृष्टि डालें, तो दो घटनाओं पर सहसा ध्यान जाता है। एक सुशांत सिंह राजपूत की मौत का मामला, तो दूसरा बिहार विधान सभा चुनाव। हाथरस के जरिये ये ताकतें इसका किसी न किसी तरह से लाभ उठाना चाहेंगी। अगर दलित हित ही हाथरस पर आंदोलनात्मक राजनीति करने वालों का उद्देश्य है, तो फिर उन्हें ऐसी अन्य घटनाओं पर भी इसी तरह दृष्टि डालनी चाहिए। अगर राजस्थान में दलित उत्पीड़न पर चुप्पी साध लें या फिर उप्र के बलरामपुर की घटना पर ही विरोध की खानापूर्ति करने लगें, तो इनकी नीयत पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है।
अगर आरोपित की जाति और धर्म को देखकर विरोध की राजनीति की जाएगी, तो इससे अंतत: सामाजिक उलझाव ही पैदा होगा। मीडिया में भले ही हाथरस प्रकरण छाया है, लेकिन जिस प्रकार सोशल मीडिया में बलरामपुर की घटना पर चर्चा चल रही है, वह बदलते समाज के मानस को अभिव्यक्त कर देती है। यह ऐसी प्रवृत्ति है, जो दलितों पर समग्रता के बजाय चयनित राजनीति करने वालों पर उल्टी भी पड़ सकती है। समय आ गया है कि बदलते संदर्भ में दलित राजनीति की दशा-दिशा पर नये सिरे से विचार-विमर्श हो। यह जानने की आवश्यकता है कि दलित समस्या का अभी तक समाधान क्यों नहीं हो पाया, लेकिन इतना साफ है कि इसने मौजूदा राजनीति की सीमाओं को उजागर कर दिया है।
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