सूना पड़ा संगीत का रस

Last Updated 19 Aug 2020 01:34:54 AM IST

भारतीय संगीत के उत्स और उसके विकास के केंद्र में आस्था और शक्ति है।


सूना पड़ा संगीत का रस

बाद में यह केंद्र अपनी परिधि रचते हुए या तो सुगमता की राह पर बढ़ा या अतिशास्त्रीयता की ओर। पंडित जसराज की खासियत यह रही कि उन्होंने अपने गायन को शास्त्रीय अनुशासन से तो बांधे रखा ही, आस्था औराक्ति के प्रति प्रतिबद्धता को भी चूकने नहीं दिया। वेद-उपनिषद  से लेकर रामायण तक जसराज ने जिस तरह खास तौर पर संस्कृत में लिखे भक्तिपदों को गाने का जोखिम उठाया, वह अपूर्व है।

अपनी इस खासयित के कारण वे अपने पूर्व और समकालीन शास्त्रीय गायकों से अलग और विलक्षण रहे। पंडित जसराज ने गायन की लीक जहां एक तरफ चुनौतियों से भरी रही, वहीं वे काफी प्रयोगधर्मी भी रहे। जिस दौर में शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में ज्यादातर गायक ध्रुपद, ख्याल और दादरा-ठुमरी की तरफ आकषिर्त हो रहे थे; जसराज ने मेवाती घराने की गायकी को चुना। एक ऐसा घराना जहां स्तुति और भक्ति की गाढ़ी परंपरा थी। महज 16 साल की उम्र में उन्होंने पंडित डीवी पलुस्कर के साथ तबले पर संगत की थी।

नाद सौंदर्य का यह यह माहिर चितेरा स्वर के साथ ताल की कितनी गहरी समझ रखता था, इसका अंदाजा उनके इस यशस्वी आगाज से लगाया जा सकता है। भक्ति साहित्य के मुश्किल छंदों-बंदिशों को गाने तथा अपनी गायकी में कई कठिन और अप्रचलित हो चले रागों को आजमाने वाले इस महान गायक की सारस्वत साधना लंबे समय तक संगीत के क्षेत्र में एक बड़ी प्रेरणा बनी रहेगी। जसराज को अपने जीवन में जहां कई विधाओं के संगीतकारों की अनन्यता मिली, वहीं वे खुद शुरुआत से ही था से ही बेगम अख्तर की गायिकी के मुरीद थे।

संगीत के क्षेत्र में आज हर तरफ एक बड़ी स्फीति दिखाई पड़ती है। व्यावसायिकता का दबाव इतना ज्यादा है कि कुछ बड़ा और सार्थक करने के बजाय लोग फूहड़ता की तरफ झुक रहे हैं। आलम यह है कि भक्ति संगीत जैसे क्षेत्र में भी यह गिरावट एक नई परिपाटी ही बन गई है। इस सांगतिक दुर्दशा के बीच ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’, ‘रुद्राष्टकम’ और ‘मधुराष्टकम’ और ‘अच्युचतं केशवम’ जैसे लाजवाब बंदिशों और भक्ति पदों को घर-घर पहुंचाने वाले पंडित जसराज देश और देश के बाहर करोड़ों लोगों की भक्तिमय आस्था और स्मृतियों में लंबे समय तक बने रहेंगे।



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