चौकस रहना होगा
भारत और चीन के कोर कमांडरों के बीच गलवान घाटी में तनाव दूर करने, सेनाओं के पीछे हटने और युद्ध के साजो-सामान हटाने से संबंधित बातचीत के सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
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करीब ग्यारह घंटों की बातचीत के बाद दोनों देशों की सेनाओं के बीच पूर्वी लद्दाख में तनाव वाले स्थानों से हटने पर आपसी सहमति बन गई है, लेकिन पीछे हटने की अभी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
इसका मतलब है कि यह बहुत लंबी चलने वाली प्रक्रिया है। यह ठीक है कि दोनों पक्षों के बीच बातचीत सौहार्दपूर्ण, सकारात्मक और रचनात्मक माहौल में हुई है, लेकिन चीन के साथ भारत का पुराना अनुभव बहुत कटु रहा है, इसलिए सैनिकों के वापस हटने की प्रक्रिया भारत के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण होगी। 1947 में भारत की आजादी और 1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन का एकीकरण विश्व इतिहास की दो ऐसी महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं, जिनने एशिया के शक्ति संतुलन के ढांचे को पूरी तरह से बदल दिया था।
भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताओं का मुख्य कारण दोनों देशों के बीच सीमा विवाद और चीन की आक्रामक विस्तारवादी नीति है। 1962 में भारत पर हुए चीनी हमलों के बाद से चीन की मंशा को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। गलवान घाटी का यह पूरा क्षेत्र सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि 15 जून को जिस स्थान पर भारत और चीन के सैनिकों के बीच झड़पें हुई थीं, वहां चीनी सैनिकों ने नये बंकर, छोटी-छोटी दीवारें और खाइयां खोद रखी हैं। जाहिर है ऐसे में कुछ रक्षा विशेषज्ञों को आशंका है कि चीन बातचीत की आड़ में अपनी सैनिक तैयारियों को मजबूत कर रहा है।
इस आशंका में कितना दम है; यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि चीन के मंसूबों का पता लगाना बहुत कठिन है। इसलिए भारत के लिए प्रस्तावित वापसी की यह योजना सर्वाधिक चिंता का विषय है। भारत को अपनी ओर से पूरी तरह से सावधानी बरतनी होगी। चीन के साथ कूटनीतिक स्तर पर बातचीत आगे भी जारी रहनी चाहिए और सैनिकों की वापसी की पूरी प्रक्रिया वरिष्ठ कमांडरों की देखरेख में होनी चाहिए, क्योंकि चीन भारत के साथ सटी सीमा पर लगातार मुश्किलें खड़ी कर रहा है।
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