संतुलन बनना कठिन
भारत लॉकडाउन के चौथे चरण के अंत में कोरोना वायरस संक्रमण से प्रभावित शीर्ष दस देशों में शामिल हो गया है।
संतुलन बनना कठिन |
बीते सोमवार को संक्रमित मरीजों की संख्या एक लाख अड़तीस हजार आठ सौ पैंतालिस दर्ज की गई। इस महामारी का चिंताजनक पहलू यह है कि अब एक दिन में करीब 7 हजार से भी ज्यादा नये मामले सामने आने लगे हैं। अगर संक्रमण बढ़ने की रफ्तार इसी तरह जारी रही तो जून के अंत तक भारत इटली और स्पेन को भी पीछे छोड़ देगा।
लोगों को याद होगा कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया पिछले दिनों लगातार अपनी बात दोहरा रहे थे कि जून-जुलाई तक भारत में कोरोना वायरस महामारी अपने चरम पर होगा और मरीजों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी। अपने देश में कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए यह सवाल प्रासंगिक हो जाता है कि आखिर डॉ. गुलेरिया के अनुमान या चेतावनी का क्या आशय निकाला जाए? उनके अनुमान का क्या यह आशय निकाला जाना चाहिए कि जून और जुलाई तक लॉकडाउन के नियमों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए और इस दौरान आर्थिक गतिविधियां भी पूरी तरह बंद रहे।
तो क्या यह मान लेना चाहिए कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लॉकडाउन के नियमों को शिथिल करने का निर्णय गलत साबित हो रहा है। और इसी कारण कोरोना संक्रमण का फैलाव भी तेजी से होने लगा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने भी लॉकडाउन के नियमों को शिथिल करने के लिए मोदी सरकार की आलोचना की है। उनका कहना है कि जब कोरोना महामारी का प्रकोप कम था तो सरकार ने कठोरता के साथ लॉकडाउन को लागू किया था। जब महामारी अपने चरम की ओर बढ़ रहा है तो लॉकडाउन को खत्म किया जा रहा है।
दरअसल, कभी-कभी देश, समाज, संस्थान या व्यक्तिगत जीवन में ऐसे संकट के क्षण उपस्थित हो जाते हैं, जिनमें सही बनाम सही के बीच संघर्ष होता है। आज सरकार के सामने इसी तरह का संकट उपस्थित है। आर्थिक गतिविधियों को लंबे समय तक बंद नहीं रखा जा सकता, इसलिए लॉकडाउन के नियमों में ढील देनी पड़ी। लेकिन दूसरी ओर आर्थिक गतिविधियां शुरू करने से कोरोना महामारी के फैलने का खतरा मौजूद है। जाहिर है इन दोनों के बीच संतुलन बनाना सरकार के लिए कठिन चुनौती है।
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