प्रवासी मजदूरों से संकट
समूचे भारत में लॉक-डाउन की घोषणा के अगले ही दिन दिल्ली, मुबंई जैसे महानगरों से दूरदराज के गांव-देहात और कस्बों की ओर बिहारी मजदूरों का जो सामूहिक पलायन हुआ था, उस पर विश्व बैंक की द्वितीय वाषिर्क अध्ययन रिपोर्ट जारी हुई है।
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यह अध् ययन विशेष रूप से भारत और उसके पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्री लंका आदि के शहरों से सामूहिक पलायन करने वाले मजदूरों पर केंद्रित है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अपने घर लौट रहे प्रवासी मजदूर अप्रभावित राज्यों एवं गांवों में कोरोना ले जाने वाले रोगवाहक हो सकते हैं। हालांकि पलायन के बाद इस बात का अनुमान सरकार, प्रशासन और समाजविज्ञानियों की ओर से भी लगाया गया था।
जाहिर सी बात थी कि शहरों से लौटने वाले मजदूरों में से अगर कोई संक्रमित होगा तो उसके संपर्क में आने वाले लोगों तक कोरोना महामारी का फैलना आसान हो सकता है। विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख किया है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अंतर्देशीय यात्री परिवहन साधनों पर रोक लगाने की घोषणा और इसे लागू करने के बीच मात्र एक दिन का समय लगा। जिससे भारी अव्यवस्था पैदा हो गई। वास्तव में लोगों को इस बीमारी से बचाने के लिए जनहित में यह कदम उठाया गया था।
लेकिन दूरदर्शितापूर्ण नहीं था। दरअसल होना यह चाहिए था कि लॉक-डाउन से पहले इन प्रवासी मजदूरों की रोजी-रोटी और मकान के सवाल को हल किया जाना चाहिए था। जैसा कि बाद में किया गया। यह अहम सवाल है कि सरकार और प्रशासन ने लॉक-डाउन से पैदा होने वाले हर पहलूओं पर विचार क्यों नहीं किया? आखिर रोज खाने-कमाने वाले गरीब मजदूर सरकार की योजना से बाहर कैसे हो गए?
प्रवासी मजदूरों को कोरोना बीमारी से उतना भय और दहशत नहीं था, जितना रोजी-रोटी की चिंता से पैदा हुई असुरक्षा भाव था। रिपोर्ट में इस तथ्य पर भी गौर किया गया है कि दक्षिण एशिया के शहरी क्षेत्र विश्व में सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्र हैं। भारत में आगरा, वाराणसी जैसे पुराने शहरों की बसावट इतनी घनी है कि यहां सामाजिक दूरी के नियम का पालन करना और कराना आसान नहीं है। इसलिए स्थिति जब सामान्य होगी और ये प्रवासी मजदूर शहरों की ओर लौटेंगे तो सरकारों के बीच आपसी समन्वय बनाना होगा नहीं तो समस्या और बढ़ेगी।
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