यूं खदेड़ा गया धरना

Last Updated 26 Mar 2020 01:44:19 AM IST

अंतत: शाहीन बाग का धरना खत्म हो गया। कहना चाहिए कि खत्म नहीं हुआ बल्कि इसे बेहद अपमानजनक तरीके से खदेड़ दिया गया।


यूं खदेड़ा गया धरना

इस धरने का अंत इतना घटनाविहीन था कि न तो इसके समर्थन में कोई आवाज उठी और न सरकार के इस कदम के विरोध में स्वर फूटा। और अगर कोई यह सोचता है कि कोरोना वायरस का आतंक खत्म होते ही धरना फिर शुरू हो जाएगा या सरकार फिर से इसे शुरू हो जाने देगी तो इन्हें अपनी बुद्धि में संशोधन करना चाहिए।

धरने के इस तरह के परिणामविहीन अंत के लिए अगर कोई एक समूह जिम्मेदार है तो यह वही समूह है जो अपनी मूर्खता की हद पार करने वाली जिद के साथ अड़ा हुआ था। हर विवेकपूर्ण अपील को ठुकरा रहा था, हर समझदारी भरे तर्क को सर के बल खड़ा कर रहा था। धरना हटने के दो दिन पूर्व वहां की औरतें चिल्ला-चिल्लाकर कह रहीं थीं कि वे धरना नहीं छोड़ेंगी।

जब उनसे कोरोना के डर की बात की गई तो उनका अद्भुत तर्क था कि कोरोना का डर शाहीन बाग के धरने को हटाने के लिए फैलाया जा रहा है। उनका यह भी तर्क था कि सरकार के पास गरीबी दूर करने जैसे और बहुत से काम हैं, लेकिन सरकार धरना हटाने पर अड़ी हुई है। और यह तो उनकी तोतारटंत थी कि सरकार हमें लिख कर दे कि वह सीएए को वापस ले रही है और एनआरसी तथा एनपीआर को कभी लागू नहीं करेगी। कोरोना के आतंक के संदर्भ में इन औरतों के लिए तर्क और औरतों के पीछे खड़े पैरोकारों के तर्क सिवाय किसी मूर्ख के हर समझदार व्यक्ति को चिढ़ा रहे थे।

यहां तक कि धरना समर्थक वामपंथी समूहों में से कुछ आवाजें इस आशय कि निकलनी शुरू हो गई थीं कि शाहीन बाग वालों को कोरोना की गंभीरता को देखते हुए धरने को हटा लेना चाहिए और जब स्थिति सामान्य हो जाए तो उन्हें धरना पुन: शुरू कर देना चाहिए। लेकिन धरनाधारी लोगों की जड़तापूर्ण जिद के कानों पर अपने समर्थकों की इस उचित अपील का भी कोई असर नहीं पड़ा।

यहां आकर इन धरनाधारियों ने अपना यह अपमानजनक अंत तय कर लिया था। वैसे भी यह स्पष्ट हो गया था कि धरना न लोकतांत्रिक है, न संविधान के लिए है, न धर्मनिरपेक्षता के लिए बल्कि एकपक्षीय जिद रखने वाले कुछ समूहों की उपज है। उम्मीद की जानी चाहिए शाहीन बाग का यह अंत कुतकरे की सवारी करने वालों के लिए एक सबक बनेगा।



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