जेएनयू को बचाइए
पिछले कुछ वर्षों से तनावग्रस्त देश के सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) दिल्ली, में बीते रविवार को भीषण हिंसा की ज्वाला फूट पड़ी।
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कुछ नकाबपोश गुंडों ने विश्वविद्यालय परिसर में घुस कर छात्रों समेत कुछ शिक्षकों को अपनी हिंसा का शिकार बनाया। इस हिंसा में विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष आइसी घोष समेत करीब 26 छात्र घायल हो गए, जिन्हें एम्स और सफदरजंग अस्पताल में दाखिल किया गया। जेएनयू से पढ़ाई करने वाले अनेक छात्र-छात्राएं देश और विदेश के प्रमुख संस्थानों में कार्यरत हैं। यहां के अधिकतर छात्र और शिक्षक वामपंथी रुझानों वाले हैं, लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) समर्थित छात्र संगठन एबीवीपी की सक्रियता बढ़ी है। कह सकते हैं कि इसके बाद से ही वैचारिक रूप से परस्पर विरोधी वाम समर्थित छात्र संगठनों और एबीवीपी आमने-सामने हैं। पिछले दिनों कई ऐसे अवसर भी आए जब इन दोनों संगठनों के बीच जमकर टकराव हुए हैं। बीते रविवार को जो हिंसा हुई उसे लेकर दोनों संगठन एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
वाम नियंत्रित छात्र संघ का कहना है कि एबीवीपी के सदस्यों ने नकाब पहन कर मारपीट और हिंसा की है, जबकि एबीवीपी ने दावा किया है कि वामपंथी छात्र संगठनों एसएफआई, आइसा और डीएसएफ से जुड़े छात्रों ने हम पर हमला किया है। अब इसके पीछे सच्चाई क्या है, इसका पता जांच-पड़ताल के बाद ही चल पाएगा, लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब पुलिस और विवि प्रशासन को देना पड़ेगा। हिंसा करने वाले नकाबपोशों की तस्वीर वायरल हो चुकी है। पुलिस और प्रशासन का फर्ज बनता है कि वे इन नकाबपोशों की तत्काल पहचान करें और उनके खिलाफ न्यायिक कार्रवाई हो। सवाल यह भी है कि विवि के मुख्य द्वार पर चौबीस घंटे सुरक्षा गार्ड तैनात रहते हैं, बावजूद इसके हथियारबंद नकाबपोश दिनदहाड़े विवि परिसर में आखिर, कैसे दाखिल हो गए? लोकतंत्र में परस्पर विरोधी छात्र संगंठनों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी ही चाहिए। लेकिन यह छात्र राजनीति का दुर्भाग्य है कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा खूनी टकराव में तब्दील होती जा रही है। दुर्भाग्य यह भी है कि इस मसले का राजनीतिकरण किया जा रहा है। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे राजनीति से उठकर इस लब्ध प्रतिष्ठित संस्थान को बर्बाद होने से बचाने की पहल करें।
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