स्कूलों पर हाईकोर्ट सख्त
राजधानी दिल्ली में विद्यालयों को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय ने जो प्रश्न उठाए हैं, वे निस्संदेह महत्त्वपूर्ण हैं।
स्कूलों पर हाईकोर्ट सख्त |
हालांकि ये प्रश्न अभी दिल्ली तक सीमित हैं, लेकिन स्थिति देश भर की कमोबेश ऐसी ही है। न्यायालय ने दिल्ली सरकार एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय से पूछा है कि दुकानों की तरह खुले विद्यालय कैसे चल रहे हैं? इनको मान्यता किन आधारों पर दी जा रही है? देखना होगा दिल्ली सरकार एवं केंद्र सरकार न्यायालय को क्या जवाब देती हैं। किंतु याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिकाओं में विद्यालयों की स्थितियों से संबंधित सही प्रश्न उठाए हैं। हो सकता है कि इसके पीछे आपसी प्रतिस्पर्धा हो, लेकिन इससे प्रश्न गलत नहीं हो जाते।
अगर कोई विद्यालय है जहां आठवीं तक की पढ़ाई हो रही है, और वहां खेल के मैदान नहीं हैं तो फिर वहां के छात्र मैदान वाले खेलों से बिल्कुल वंचित हो जाएंगे। ऐसे अनेक विद्यालय आपको दिख जाएंगे जहां खेल के मैदान तो छोड़िए, अन्य अनेक आवश्यक सुविधाएं तक नहीं हैं। कुछ विद्यालयों को ओपन स्कूल से मान्यता मिली हुई है। न्यायालय ने कहा है कि उस स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को बिना पढ़ाई के ही प्रमाण पत्र दे दिया जाएगा। वैसे दिल्ली सरकार ने तीन विद्यालयों को बंद करने का आदेश दिया था जो एक ट्रस्ट के तहत चल रहे थे।
इसके विरुद्ध भी एक याचिका न्यायालय में आई है। ट्रस्ट ने अपने बचाव में कहा कि यह अल्पसंख्यक ट्रस्ट स्कूल है, जिसे एनआईओएस से मान्यता प्राप्त है। इस समय केवल दिल्ली ही नहीं देश में कहीं चले जाइए ऐसे निजी विद्यालयों की भरमार दिखती है, जिन्हें किसी दृष्टि से विद्यालय नहीं कहा जा सकता। किंतु वे हैं और छात्र-छात्राएं वहां पढ़ रहे हैं। जाहिर है, उनको प्रमाण पत्र भी मिलता है। अगर इनकी जांच हों तो ज्यादातर को बंद करना पड़ेगा। सरकारी विद्यालयों के रहते हुए शहर-शहर, गांव-गांव ऐसे विद्यालय खुले हुए हैं। यह आज की शायद सबसे जटिल समस्या है।
अगर आप इनको बंद कर देते हैं तो वे छात्र-छात्राएं अध्ययन के लिए कहां जाएंगे? दूसरे, इन विद्यालयों में लाखों को शिक्षक-शिक्षिकाएं से लेकर अन्य पदों पर रोजगार मिला है। ये रोजगार स्तरीय नहीं हैं, लेकिन हैं। साथ ही, स्थानीय लोगों का भी इनको समर्थन हासिल है। यह मूल रूप से हमारी शिक्षा संरचना की कमियों से पैदा हुई समस्या है, जिसका समाधान आसान नहीं है।
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