कश्मीर में बेचैनी
पिछले दिनों जब कश्मीर घाटी में अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजे गए, तो यही कहा गया कि आतंकवाद की चुनौतियों से निपटने के लिए इसकी आवश्यकता थी।
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इसकी तार्किक परिणति यही होनी चाहिए थी कि आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई और तेज हो जाती। यह तो नहीं कहा जा सकता कि पहले से आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की चल रही कार्रवाई में कोई धीमापन आया है, लेकिन इस बात की भी उम्मीद नहीं थी कि घाटी से अमरनाथ यात्रियों और पर्यटकों को जल्द लौटने के लिए कहा जाएगा।
अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती से यह उम्मीद पैदा हुई थी कि जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ यात्रा निर्बाध तरीके से चलती रहेगी। जम्मू-कश्मीर प्रशासन के परामर्श के बाद घाटी से सैलानी और श्रद्धालु लौटने लगे हैं। ऐसे में यह सवाल उठने लगा है कि अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजने का औचित्य क्या था?
इससे सरकार की सुरक्षा तैयारियों को लेकर सकारात्मक संदेश नहीं जाता। बेशक सरकार खुफिया सूचनाओं के आधार पर नागरिकों की जान-माल की सुरक्षा के लिए ऐहतियात के आधार पर ऐसा कदम उठा सकती है, क्योंकि किसी आतंकी घटना के घटित होने पर सरकार से यही पूछा जाएगा कि उसने पूर्व सूचना होने के बावजूद सतर्कता क्यों नहीं बरती? पर इसका दूसरा पहलू यह भी है कि अगर सरकार के पास आतंकियों के बारे में पुख्ता सूचना है, तो वह उनके खिलाफ कार्रवाई करती और श्रद्धालुओं-पर्यटकों को घाटी से लौटने के लिए नहीं कहती।
जब सरकार खुद आतंकवाद पर अंकुश लगाने का बार-बार दावा करती रही है, तो फिर अमरनाथ यात्रा रोकना अप्रत्याशित कदम है। यही वह अंतर्विरोध है, जिससे घाटी में भय, बेचैनी एवं अनिश्चितता का माहौल पैदा हो गया है और पूरे देश की नजर उस पर टिक गई है। अगर सब कुछ सामान्य है, तो पारदर्शिता का यही तकाजा है कि केंद्र सरकार को कश्मीर पर अपना रु ख स्पष्ट करना चाहिए। मगर सरकार कश्मीर समस्या के समाधान के लिए विशेष कदम उठाने के लिए मन बना चुकी है, तो संभव है कि वह एक रणनीति के तहत फिलहाल स्थिति स्पष्ट न करे। 2019 का जनादेश कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान के पक्ष में है। ऐसे में सरकार को आंतरिक ही नहीं, बाह्य परिस्थितियों का भी आकलन ठीक से कर लेना होगा।
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