इंजीनियरिंग शिक्षा
बीआर मोहन रेड्डी की अध्यक्षता में गठित अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) की समिति ने भारत में इंजीनियरिंग शिक्षा के गिरते स्तर पर जो रिपोर्ट सौंपी है, वह चिंतित करने वाली है।
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रिपोर्ट के मुताबिक इंजीनियरिंग शिक्षण संस्थाओं में उपलब्ध क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता। करीब आधी सीटें ही भर पाती हैं। प्रचलित इंजीनियरिंग कोर्स में यह समस्या और ज्यादा विकट है। देश के पांच दक्षिणी राज्यों आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल-में यह समस्या और गंभीर है, जहां इंजीनियरिंग की ज्यादातर सीटें हैं। यह अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि कोर्स की उपयोगिता बाजार से तय होती है और बाजार में जिस कोर्स की मांग ज्यादा होगी, उसके छात्र भी ज्यादा होंगे। पर ऐसा नहीं है कि इंजीनियरिंग के प्रति युवा पीढ़ी में आकषर्ण बिल्कुल समाप्त हो गया है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें सांस्कृतिक और बौद्धिक परिवर्तन हो रहा है। ये केवल तकनीकी शिक्षा ही नहीं, बल्कि बदलते भारत के संदर्भ में एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझ हासिल करना चाहते हैं, ताकि देशकाल की परिस्थितियों की चुनौतियों का सामना कर सकें। ऐसे में समिति की यह बात ध्यान देने योग्य है, जिसमें उसने उद्योग और अकादमिक जगत के बीच संपर्क के अभाव पर चिंता जताई है।
इसका मतलब यह हुआ कि इंजीनियरिंग के छात्र अपेक्षा के अनुरूप देश की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता से परिचित नहीं हैं। केवल तकनीकी कौशल से सुसज्जित छात्र राष्ट्र व समाज की समग्र जरूरतों को ठीक-ठीक समझ नहीं पाएंगे। इन विसंगतियों के मद्देनजर समिति ने कुछ अहम सुझाव दिए हैं। समिति का कहना है कि पारंपरिक इंजीनियरिंग कोर्स में सीटें न बढ़ाई जाएं और 2020 से नये इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने की मंजूरी पर रोक लगाई जाए। इस अवधि के बाद से नई क्षमता का निर्माण नहीं किया जाए और हरेक दो वर्ष में इसकी समीक्षा की जाए। साथ ही, उसने उद्योग और अकादमिक संपर्क का इको सिस्टम तैयार करने का सुझाव दिया है। शिक्षा के बढ़ते बाजार को देखते हुए मोदी सरकार को समिति की रिपोर्ट पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, ताकि इंजीनियरिंग शिक्षा को सुव्यवस्थित कर उसकी गुणवत्ता बढ़ाई जा सके। यह पांच हजार अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था के सपने को साकार करने के लिए भी जरूरी है।
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