व्यक्ति केंद्रित चुनाव
सत्रहवीं लोक सभा के लिए हो रहे चुनाव के चौथे चरण में नौ राज्यों की 72 सीटों पर मतदान संपन्न हो गया। इन चार चरणों में दो तिहाई सीटों पर मतदान हो चुका है।
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शेष तीन चरणों में एक तिहाई सीटों के लिए मतदान होना है यानी चुनाव ने करीब आधे से ज्यादा का सफर तय कर लिया है, लेकिन तटस्थ चुनाव विश्लेषक अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर कौन बैठेगा? मतदाता अपने मतों को गोपनीय रख रहे हैं। 1952 के प्रथम चुनाव से लेकर अब तक लोक सभा के जो भी चुनाव हुए हैं, उन सबकी कुछ न कुछ विशेषताएं रही हैं। इस लिहाज से सत्रहवीं लोक सभा के चुनाव में भी कुछ खास प्रवृत्तियां दिखाई दे रही हैं।
पहली तो यह कि यह चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यक्ति केंद्रित हो गया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों के समूचे चुनाव प्रचार अभियान में प्रधानमंत्री मोदी छाए हुए हैं। अलग-अलग चुनाव लड़ रहा विपक्षी खेमा प्रधानमंत्री मोदी का विरोध कर रहा है, या भाजपा और उसका गठबंधन मोदी का समर्थन कर रहा है अर्थात चुनाव प्रचार प्रधानमंत्री मोदी के ईर्द-गिर्द सिमट कर रह गया है। इसका एक आशय यह निकाला जा सकता है कि मोदी के पक्ष में भीतरी लहर है, या फिर मतदाताओं का रुख उनके विरोध में है।
यह भी देखने में आ रहा है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही ओर से जिस तरह के बेलाग आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं, वैसा पहले के चुनावों में नहीं हुआ। सभी राजनीतिक दलों के नेता भाषा की मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ रहे हैं। लोकतंत्र को सफल और जीवंत बनाने की जिम्मेदारी जिनके कंधों पर है, वही लोग अपने राजनीतिक आचरण से लोकतंत्र को पटरी पर से उतारने में सहायक बन रहे हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इस बार चुनाव आयोग को आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों पर कड़ी कार्रवाई करनी पड़ी।
इसी तरह यह पहला चुनाव है जिसमें चुनाव आयोग पर गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं। चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है, और इसी संस्था को श्रेय दिया जाता है कि उसकी पहल पर ही अनेक ऐसे चुनाव सुधार हुए जिनसे चुनाव निष्पक्ष हो सका। स्वस्थ राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है, लेकिन राजनेताओं को ध्यान रखना चाहिए कि चुनावी लाभ के लिए संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा और सम्मान को गिरने न दें।
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