हास्य में लीजिए
चुनाव सभाओं में हमारे राजनीतिक दल एक दूसरे पर जितना संभव होता है, हमलावर होते हैं। हमले के जरिये ही वह दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता की धाक जमाते और प्रतिपक्षी की खिंचाई करते हैं।
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यह काम कोई चुटीले व्यंग्य या हास्य से करता है तो कोई उसे तीखेपन की हद की आक्रामकता के साथ। स्थापित सामान्य परम्परा में ये सब हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सौंदर्य हैं। ताजा विवाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा समाजवादी पार्टी, रालोद तथा बसपा के आरंभ के तीनों वर्णो को एक साथ मिलाकर ‘शराब’ (सही होता सराब) कहने पर है। उन्होंने वोटरों को इस नशे से बचकर रहने की नसीहत दी। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट कर दिया कि प्रधानमंत्री को सराब और शराब का अंतर भी समझ में नहीं आता। सराब का अर्थ मृगतृष्णा होता है। इससे एक बहस शुरू हो गई है कि प्रधानमंत्री को ऐसा बोलना चाहिए या नहीं..इसका अर्थ क्या है आदि-आदि। चुनाव सभा में अपने विरु द्ध खड़े गठबंधन की आलोचनाओं में ऐसे कुछ शब्द गढ़े जाने का एक तरह से रिवाज रहा है। सराब को शराब कहना इसी कोटि में है। लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी होते हैं, दुश्मन नहीं। चुनाव भी हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही अंग है। उसमें एक दूसरे की आलोचना करते हुए भी शब्दों, उपमाओं और उदाहरणों को प्रस्तुत करने में सतर्क रहना चाहिए। ऐसा हो नहीं रहा। इसका मूल कारण कुछ राजनीतिक दलों में कुछ विचारहीन और स्तरहीन नेताओं का बोलबाला हो जाना है।
जिनके पास न कोई विचार है, न आदर्श, वे आखिर क्या बोलेंगे? किंतु हमें हर प्रकार की उपमा को इसी श्रेणी में नहीं मान लेना चाहिए। राजनीति में सारे लोग दूध के धुले तो हैं नहीं। इसलिए अगर कोई गलत है तो उसे गलत कहना ही चाहिए। हां, वैसा कहने में अपशब्दों का प्रयोग न हो यह जरूरी है। दूसरे, अगर किसी पर हम भ्रष्टाचार या चारित्रिक पतन के आरोप लगाते हैं तो हमारे पास उनके प्रमाण होने चाहिए। निराधार आरोपों से लोकतांत्रिक वातावरण दूषित होता है। उससे बहस की गलत बुनियाद पड़ती है। कोशिश तो यही होनी चाहिए कि हास्य और व्यंग्य के पुट में प्रतिद्वंद्वी की आलोचना की जाए। विपक्षी को भी इसी रूप में आशय ग्रहण करना चाहिए। हास्य-व्यंग्य तो जीवन के सभी क्षेत्र को सरस बनाते हैं।
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