गोवा में दल-बदल
गोवा में हुई दल-बदल की घटना चिंताजनक है। वहां भाजपा की सरकार सहयोगी दलों के समर्थन पर टिकी है।
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पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर सहयोगी दलों के बीच एकता के मुख्य कारक थे। बहुमत खोने के बावजूद भाजपा की सरकार वहां फिर से इसलिए बन पाई कि शेष दलों ने पर्रिकर को मुख्यमंत्री बनाने की शर्त पर समर्थन दिया था। पर्रिकर के निधन के बाद उनके कद का कोई नेता गोवा में किसी दल में नहीं है। मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत को भी इसका पता है।
महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी के तीन विधायकों का समर्थन सरकार को जीवित रखने के लिए आवश्यक था। पार्टी के दो विधायक सुधीन धवलीकर से असंतुष्ट थे। इसलिए उन्होंने भाजपा के सामने अपनी पार्टी के विलय का प्रस्ताव दिया और सावंत ने उसे स्वीकार कर लिया। इसका पत्र विधानसभा अध्यक्ष को भी दे दिया गया। जाहिर है, इससे सुधीन धवलीकर कमजोर हो गए हैं। मुख्यमंत्री ने उपमुख्यमंत्री सुधीन धवलीकर को कैबिनेट से भी हटा दिया। दोनों विधायकों की यही मांग थी।
पर्रिकर की मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री पद की दावेदारी उन्होंने भी की थी किंतु बाद में वे उपमुख्यमंत्री बनाए जाने पर समर्थन देने को राजी हो गए थे। हालांकि एमजीपी में आंतरिक कलह भी चल रहा है। उसके एक नेता को पार्टी अध्यक्ष दीपक धवलीकर ने बर्खास्त कर दिया। इसके बाद से दो विधायक नेतृत्व के विरु द्ध हो गए थे। यह संभावना थी कि वह साथ छोड़कर कांग्रेस की ओर चले जाते। यह स्थिति थी। किंतु इसका रास्ता दूसरा भी हो सकता था। पर्रिकर ने अपने कार्यकाल में साथी दलों में तोड़फोड़ की कोशिश नहीं की। वास्तव में इससे गलत संदेश जाता है। उन दोनों को अलग पार्टी के रूप में मान्यता दिलाई जा सकती थी।
गोवा फॉर्वड पार्टी भी सरकार में शामिल है। इन दो विधायकों के भाजपा में जाने के बाद इसके अध्यक्ष विजय सरदेसाई ने इसे सहयोगियों में संदेह पैदा करने वाला कदम बताया है। सरदेसाई भी उपमुख्यमंत्री हैं। उन्हें डर है कि ऐसा करने से हम जनता की सहानुभूति खो देंगे। एक घटना के बाद इनके अंदर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। जाहिर है, भाजपा नेतृत्व को सार्वजनिक रूप से आश्वासन देना चाहिए। दल-बदल हमारी राजनीति का कोढ़ है। छोटे राज्यों में बहुमतविहीनता की स्थिति में हमने पाला बदलने तथा सरकारों के आने-जाने का कुरूप दृश्य हमने देखा है। गोवा उसमें शामिल रहा है। कामना करेंगे कि गोवा अब अपने उस दुखद इतिहास को नहीं दुहराए।
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