तेरे गरीब, मेरे गरीब
मुल्क में हर गरीब को रोजगार भले ही ना मिल पाया हो, पर गरीबों ने लगातार रोजगार दिया है, नेताओं को खास तौर पर। 1971 का चुनाव इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ नारे के आधार पर जीता था।
तेरे गरीब, मेरे गरीब |
करीब पचास साल बाद भी गरीबी पर सर्जिकल स्ट्राइक की बात इंदिरा गांधी के पोते राहुल गांधी कर रहे हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी गरीबी हटाए जाने की बातें होती रही हैं। गरीबी हटने का नाम नहीं ले रही है। कभी कभी गंभीर संदेह पैदा हो जाता कि हमारा राजनीतिक वर्ग गरीबी हटाना चाहता भी है या नहीं। पूरी जनसंख्या के लिए स्कूल, अस्पताल, सम्मानजनक रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना मुश्किल काम है।
ज्यादा आसान काम है कुछ टुकड़े जैसे जनता के आगे फेंक दिए जाएं। कभी मुफ्त का टीवी, कभी मुफ्त का मंगलसूत्र। उचित शिक्षा, उचित कौशल दिया जाए, तो लोग अपने आप टीवी खरीद लेंगे। किसान को उसकी फसल का सही भाव मिल जाये, तो वह काहे को सरकारी 2000 रु पये का तलबगार रहे? अब राहुल गांधी पांच करोड़ गरीब परिवारों को सालाना 72000 रु पये का वादा लेकर सामने आए हैं।
मोटा-मोटा अनुमान यह है कि इसमें योजना में हर साल करीब तीन लाख 60000 रु पये का खर्च होगा। यह रकम कितनी बड़ी है इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि जीएसटी से सरकार जितना हर महीने कमाती है, उसके तीन गुना से अधिक की रकम इस योजना में जा सकती है। इसके संसाधन कहां से आएंगे, इस सवाल का जवाब अभी नहीं है।
नये कर लगाकर आएंगे, तो निश्चय ही वह उन पर लगेगा, जो कर दायरे में हैं और जिनके रिकार्ड आयकर विभाग के पास हैं या जिनकी धरपकड़ संभव है। नये कर लगाकर, कर बढ़ाकर संसाधन बढ़ाने में बहुत समस्याएं आती हैं। इस पूरी योजना का एक आयाम यह भी है कि जो लोग काम करके पैसा कमा रहे हैं, उनसे वसूला जाए और उन्हें दिया जाए, जो इस अर्थव्यवस्था में अपने लिये न्यूनतम जुगाड़ ना कर पा रहे हैं।
सत्तर के दशक में वामपक्षीय विचारधारा से प्रभावित आर्थिक नीतियों के चलते कर दर बहुत ऊंची होती थीं और कुशलता के बजाय गरीबी के वितरण को ही प्रोत्साहन मिलता था। अर्थव्यवस्था में ठोस बेहतरी नागरिकों को कुशल बनाकर, बाजार में उनकी सेवाओं और सामान के लिए सही बाजार मुहैया कराकर ही हासिल की जा सकती है। इस दीर्घकालीन परियोजना पर किसी राजनीतिक दल का गंभीर ध्यान नहीं है।
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