मौत का होटल

Last Updated 14 Feb 2019 05:46:50 AM IST

व्यवस्था की खामियां किस कदर महंगी पड़ती है, यह करोलबाग अग्निकांड से मालूम पड़ जाता है। होटल अर्पित में लगी भीषण आग ने कई परिवारों की खुशियों को भी जला कर राख कर दिया।


मौत का होटल

जिसे जिम्मेदारी और ईमानदारी से अपनी डय़ूटी निभानी चाहिए थी, वह सोते रहे। अगर वक्त रहते महकमे के अधिकारी जाग जाते तो 17 लोग मौत की नींद न सोते। यह तो सरासर हत्या है। इसे हादसा कहना बिल्कुल गलत होगा।

नियमों की ऐसी धज्जियां उड़ाई गई कि हर कोई सन्न है। चार मंजिला इमारत की अधिकृत मंजूरी के बावजूद छह मंजिला इमारत बन गई। छत को रेस्तरां और किचन के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा था। एक आपातकालीन द्वार बाहर निकलने के लिए था, मगर नाम का-वहां ताला लटका था। सीढ़ियां संकरी थी, अग्निशमन उपकरण शो पीस बनकर लटके थे, फायर अलार्म गूंगे बने हुए थे। कह सकते हैं कि बचाव के जितने भी यंत्र और साजो-सामान थे, सारे-के-सारे निष्क्रिय और बेजान थे। था तो बस रुपये कमाने का लालच।

यह कांड इसलिए भी दिलोदिमाग को सुन्न करता है क्योंकि देश का सबसे लोमहषर्क अग्निकांड ‘उपहार’ हुए 22 साल बीत गए मगर दिल्ली ने कोई सबक नहीं लिया। हजारों खामियां उठाई गई मगर नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात।’ वही राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप, मामले का कई सालों तक चलना और फिर सबकुछ बिसरा देना। यही सालों से होता रहा है। एक सवाल यह भी कि राजधानी दिल्ली का शहरी ढांचा क्या इस कदर खोखला और अनियमित है कि सुधार की बातें बियाबान में गुम हो जाती हैं? सख्ती और सुधार जिसकी जिम्मेदारियों में शुमार है, वह नीम बेहोशी की हालत में है।

इस ओर कब सरकार की नजरें इनायत होंगी? कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता होगा जब दिल्ली के किसी कोने में आग की घटना घटित नहीं होती होगी? जब यह हाल देश की राजधानी का है तो बाकी शहरों का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। लिहाजा सरकार को कुछ कठोर कदम उठाने ही होंगे। ऐसे होटल, रेस्तरां और गेस्ट हाउस की सूची तैयार कर उनपर कार्रवाई करनी होगी, जो नियम-कानून से परे जाकर मौत को दावत दे रहे हैं। सिर्फ जुबानी खर्च करने से न तो पीड़ितों को न्याय मिलेगा न लापरवाह कानूनी शिकंजे में आएंगे।



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