रोजगार पर राजनीति
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद ही कमलनाथ ने कहा था कि सरकारी सहायता प्राप्त उद्योगों को 70 प्रतिशत नौकरी स्थानीय लोगों को देनी होगी।
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उस समय कुछ लोगों को इसके राष्ट्रव्यापी राजनीति निहितार्थ के मद्देनजर शायद यह लगा होगा कि मध्य प्रदेश सरकार इस दिशा में आगे नहीं बढ़ेगी, लेकिन ऐसे लोगों का अनुमान गलत निकला। कमलनाथ ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र का हवाला देते हुए ट्विटर पर लिखा कि हमने राज्य सरकार द्वारा पोषित शासकीय योजनाओं, कर-छूट और अन्य सहायता प्राप्त सभी उद्योगों में 70 प्रतिशत रोजगार मध्य प्रदेश के लोगों को देना अनिवार्य कर दिया है। मध्य प्रदेश सरकार के इस फैसले के दो पहलू हैं- एक संवैधानिक और दूसरा राजनीतिक। पहली बात तो यह है कि सरकारी सहायता प्राप्त उद्योगों को भी राज्य की व्यापक परिभाषा के तहत राज्य का ही हिस्सा माना जा सकता है। इसलिए किसी राज्य सरकार को अगर यह लगता है कि वहां की सेवाओं में वहां के स्थानीय लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो वह उनके हितों के संरक्षण के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती है। इसके बावजूद नौकरियों की इस सीमा पर सवाल उठाया जा सकता है।
यही नहीं, इसे उस संघीय भावना के खिलाफ भी माना जा सकता है, जिसमें भारतीय राज्य की एकात्मक प्रवृत्ति पर जोर है। वास्तविक परिवर्तन को रेखांकित करने में संघवाद के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण को तभी सफल माना जा सकता है, जब सामाजिक और राजनीतिक धरातल पर उसे समर्थन मिले। मुख्यमंत्री कमलनाथ की इस घोषणा को मध्य प्रदेश के भीतर भले ही समर्थन मिल जाए, लेकिन दूसरे राज्यों में समर्थन मिलना मुश्किल होगा। मीडिया रिपोटरे के मुताबिक कमलनाथ ने कहा था कि बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के लोगों के कारण मध्य प्रदेश में स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं मिल पाती है। यह सोच संघीय ढांचे में जुड़े राज्यों और वहां के लोगों के बीच भावनात्मक एकता विकसित करने में सहायक नहीं होगी। यही कारण है कि उस समय दलगत आधार से उठकर भाजपा, जदयू, राजद और सपा ने बयान की आलोचना की थी। उप्र और बिहार में अपनी जमीन मजबूत करने में लगी कांग्रेस के लिए यह परेशानी का सबब बन सकता है, अगर कोई राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन इस मसले को उठा दे।
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