पेरिस न मानें तो विपत्ति

Last Updated 20 Nov 2018 06:54:10 AM IST

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का यह कहना बिल्कुल सही है कि जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता का कोई विकल्प नहीं है।


पेरिस न मानें तो विपत्ति

लेकिन गुटेरेस को ऐसा क्यों कहना पड़ा? तीन वर्ष पूर्व फ्रांस की राजधानी में दुनिया भर के नेताओं ने पृथ्वी को बचाने के लिए समझौते में सबने अपने-अपने देशों और सामूहिक दायित्व तय किए थे। तीन साल बाद उस समझौते की परिणति क्या है, कहना कठिन है। अगले महीने पोलैंड के कटोविस शहर में 3 दिसम्बर से 14 दिसम्बर तक जलवायु परिवर्तन पर संरा के फ्रेमवर्क कन्वेंशन का 24वां सम्मेलन (कोप 24) आयोजित हो रहा है। पेरिस समझौता लंबी बातचीत के बाद संभव हुआ था और भारत की उसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। अमेरिका भी उसका साझेदार था। किंतु डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता में आने के बाद कह दिया कि अमेरिका उसे समझौते से बाहर आ जाएगा। वे माने नहीं। यह समझौता नवम्बर 2016 से लागू हो चुका है। 197 में से 184 देशों ने इसकी मंजूरी दी है। किंतु अमेरिका जैसा देश इससे सहमत नहीं है तो इसके सफल होने की संभावना अत्यंत कम हो जाती है।

अमेरिका का कहना है कि इसमें चीन और रूस जैसे देशों को पूरी छूट मिल गई हैं, भारत को विकासशील देश होने के नाते क्षतिपूर्ति मिलनी है और हमारे न केवल हाथ-पैर बांधे गए हैं, बल्कि हमें खबरों को डाल देने को बाध्य किया गया है। इस स्थिति के बीच कोप 24 आयोजित हो रहा है। सम्मेलन के तीन मुख्य लक्ष्य निर्धारित हैं-पर्यावरण के अनुकूल तकनीक का विकास, पर्यावरण के पक्ष में काम करने वाले समाज को एकजुट करना और पर्यावरण निष्पक्षता हासिल करना। इनमें आरंभिक दो पर सहमति हो जाएगी। हालांकि इसे अमल में लाना आसान नहीं है। तकनीक का विकास तो वैश्विक सहयोग से हो सकता है। इसमें विकसित देशों की मुख्य भूमिका होगी। लेकिन पर्यावरण निष्पक्षता ऐसा विषय है, जिस पर सहमति कठिन है। पेरिस समझौते का मूल लक्ष्य ग्रीन उत्सर्जन को कम करके पूर्व औद्योगिक स्तर से ऊपर औसत वैश्विक तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखना है, वरना विपत्तियां आ सकतीं हैं। पृथ्वी और वायुमंडल को बचाना है तो विश्व को संकल्प और साहस के साथ कदम उठाने ही होंगे। अमेरिका भले क्षतिपूर्ति न देना चाहता हो, पर पृथ्वी बचाने की जिम्मेवारी उसकी भी है।



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