सियासी तल्खी
यह अंदाजा तो पहले से होने लगा है कि जैसे-जैसे चुनावी वेला करीब आती जाएगी, राजनैतिक तल्खी तेज होती जाएगी.
सियासी तल्खी |
लेकिन लगातार नये-नये मुहावरे और विश्लेषणों की तलाश में मर्यादाएं भी छूटती जाएंगी, यह उम्मीद शायद नहीं की जा सकती. कर्नाटक की चुनावी सभा में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने केंद्र की एनडीए सरकार पर तो आरोप लगाए ही, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर ‘रियर मिरर व्यू’ यानी पीछे देखू नजरिए का आरोप भी मढ़ा.
उसके पहले बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने पिछली घटनाओं और प्रकरणों का जिक्र करके कांग्रेस पर तीखा हमला किया था. असल में दांव इतने ऊंचे हैं कि दोनों तरफ उतावलापन नजर आने लगा है.
इस उतावलेपन से तल्खी लगातार बढ़ेगी और इससे राजनैतिक सहमतियों की जगह लगातार सिकुड़ती जाएगी, जो लोकतंत्र के स्वस्थ अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी है. ऐसी तल्खी पहले भी देखने को मिली हैं लेकिन इतनी मर्यादा रखी जाती रही है कि व्यक्तिगत टिप्पणियां भी सिर्फ मुद्दों को लेकर हों, किसी तरह की छींटाकशी न हो.
यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि मकसद सिर्फ येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना भर न हो. दरअसल, चुनाव मुद्दों के प्रति जनता में जागरूकता लाने और सियासी फलक को भविष्य की दिशा में मोड़ने का मौका भी होता है.
समय के साथ जो नई चुनौतियां उभरती हैं, उनके बारे में भी व्यापक बहस का यह मौका होता है. इसलिए चुनाव को लोकतंत्र को समृद्ध करने के लिए इस्तेमाल करना ही असली उद्देश्य होना चाहिए.
आर्थिक प्रगति के लिए भी जरूरी है कि सियासत ऐसी सहमति के बिंदुओं पर जाकर खड़ी हो. तभी हम सभी विकल्पों को तौलते हुए खुशहाली के रास्ते पर चल सकेंगे. विकास प्रक्रिया में यह देखना भी जरूरी है कि वह समावेशी हो और सभी को उसका कमोबेश समान लाभ मिले.
आज देश आर्थिक बदहाली के जिस कगार पर खड़ा है, उसमें यह सबसे जरूरी बन गया है कि विकास के तरीके पर विचार किया जाए. इसके लिए यह भी जरूरी है कि एक राजनैतिक सहमति का बिंदु तैयार हो, जहां से समस्याओं पर गंभीरता से विचार हो सके. आशा की जानी चाहिए कि नेता और राजनैतिक पार्टियों में इस लोतांत्रिक तकाजे का एहसास गहराए.
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