जवाब किसके पास?
देश की सबसे विश्वसनीय जांच एजेंसी सीबीआई और देश की सबसे तेजतर्रार दिल्ली पुलिस के हाथ जेएनयू छात्र नजीब अहमद के मामले में खाली हैं.
जेएनयू छात्र नजीब अहमद लापता (फाइल फोटो) |
नजीब अहमद जेएनयू परिसर स्थित अपने हॉस्टल से 366 दिन पहले रहस्यमय हालात में गायब हो गया. वामपंथी छात्र संगठनों और घरवालों के आंदोलन के दबाव में सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपी.
इस उम्मीद में की नजीब को जांच एजेंसी जरूर ढूंढ़ निकालेगी. लेकिन नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’. जब एक साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने सीबीआई को उसकी लापरवाही, सतही जांच और उसके टाल-मटोल वाले रवैये पर डांट पिलाई तो यह मानने में तनिक भी शंका नहीं रह गई है कि देश की अव्वल जांच ईकाई निस्तेज होती जा रही है. कुछ दिनों पहले नोएडा के चर्चित आरुषि हत्याकांड में सीबीआई की भूमिका जगजाहिर हो ही चुकी है.
साढ़े पांच महीने से नजीब की गुमशुदगी का मामला सीबीआई के पास है, लेकिन उसे खोज पाना तो दूर कायदे से सीबीआई उसका सुराग तक नहीं लगा सकी है. यह हाल तब है जब सीबीआई से पहले नजीब का मामला दिल्ली पुलिस और उसके बाद क्राइम ब्रांच को सौंपा गया. 150 से ज्यादा पुलिसकर्मियों की टीम भी नजीब का पता नहीं लगा सकी. यहां तक कि सड़कों पर प्रदर्शन के अलावा मामला संसद तक में गूंजा. लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी उस एजेंसी को लेकर है, जिसे इस आशा के साथ केस सौंपा जाता है कि वह इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाकर रहेगा.
हाईकोर्ट की टिप्पणी इस मायने में ज्यादा दुखद है कि उसने सीबीआई जांच को हतोत्साहित करने वाला बताया. साथ ही डीआईजी के बदले इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारी द्वारा तफ्तीश करने को भी आड़े हाथ लिया. देखना है हाईकोर्ट की फटकार का सीबीआई की सेहत और आचार-व्यवहार पर क्या असर पड़ता है लेकिन एक बात तो साफ तौर पर उभरकर निकली है कि जांच एजेंसी न तो इस मामले में संजीदा है न संवेदनशील.
हां, रही-सही कसर पुलिस ने पूरी कर दी. नजीब की मां के दिल पर क्या गुजरती होगी, यह एक मां ही जान सकती है. निर्मम पुलिस ने उन्हें भी नहीं बख्शा. हाईकोर्ट के बाहर धरना दे रहीं नजीब की मां को जिस तरह से पुलिसवालों ने उठाया, वे भी ब्रिटिश काल की बर्बरता की याद दिला देता है. क्या सिस्टम से नाराज मां पर सख्ती को जायज ठहराया जा सकता है?
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