ममता को झटका

Last Updated 23 Sep 2017 01:23:48 AM IST

कोलकाता उच्च न्यायालय ने दुर्गा मूर्ति विसर्जन को लेकर जो कुछ टिप्पणियां की हैं वह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए तीखी निंदा ही है.


ममता को झटका

अगर न्यायालय कह रहा है कि दोनों समुदाय के बीच सद्भाव बने रहने दीजिए तो इसका अर्थ यही निकलता है कि ममता के आदेश को न्यायालय सद्भाव तोड़ने वाला मानता था. वास्तव में ममता ने जिस तरह यह आदेश जारी कर दिया कि मोहर्रम को देखते हुए 30 सितम्बर की शाम 6 बजे से लेकर 2 अक्टूबर की सुबह तक दुर्गा मूर्ति का विसर्जन नहीं किया जाएगा, उससे हिन्दुओं के अंदर गुस्सा का भाव पैदा हुआ था.

इसे एक समुदाय के तुष्टिकरण के रूप में देखा जाना भी स्वाभाविक था. आखिर दो समुदाय अपने-अपने पर्व एक साथ क्यों नहीं मना सकते. यदि सुरक्षा की समस्या है तो यह सरकार की जिम्मेवारी थी. किंतु अपनी जिम्मेवारी पूरी करने की जगह आप पर्व को ही रोक दीजिए तो फिर न्यायालय या कहीं उसका समर्थन नहीं मिल सकता. न्यायालय ने कहा भी कि रेगुलेशन यानी नियमन एवं प्रोहिबिशन यानी बंदिश में अंतर होता है.

ममता ने पहले की जगह दूसरे विकल्प को अपनाया, जिसका कोई कानूनी आधार नहीं था. यह एक समुदाय के धार्मिंक अधिकारों पर चोट भी था. न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्य सरकार मूर्तियों के विसर्जन और मोहर्रम के जुलूस के लिए अलग-अलग रूट तय करे और पुलिस यथोचित सुरक्षा की व्यवस्था करे. यही व्यावहारिक एवं उपयुक्त है. किंतु ममता बनर्जी न्यायालय के निर्णय को सकारात्मक भाव से लेने की जगह साफ नाखुशी जाहिर कर रहीं हैं. वह कह रहीं हैं कि कोई उनकी गर्दन काट ले लेकिन उन्हें अपना सिद्धांत बदलने के लिए मजबूर नहीं कर सकता.

इसका अर्थ क्या है? उन्होंने न्यायालय की आलोचना नहीं की लेकिन अपने निर्णय को अब भी सही ठहरा रहीं है. उन्होंने अब यह फरमान दे दिया है कि विसर्जन के लिए पुलिस की अनुमति लेनी होगी. तो क्या अब लोग पुलिस से विसर्जन की अनुमति लेने जाएंगे और पुलिस कहेगी तो करेंगे? क्या पुलिस के लिए उच्च न्यायालय का आदेश नहीं है?

अदालत के आदेश के बाद पुलिस की भूमिका यह तय करने की नहीं रह गई है कि मूर्ति विसर्जन अपनी निर्धारित तिथि को हो या नहीं. उसकी भूमिका केवल विसर्जन बिना किसी हिंसा और बाधा के संपन्न हो जाए ऐसी व्यवस्था करने तक सीमित रह गई है. ममता को इसे समझना चाहिए. यह भी समझना होगा कि  जज भी इसी समाज के हैं और उन्हें भी अमन की चिंता होगी.



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