कहां जाएं छात्राएं
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में शनिवार की रात छात्र-छात्राओं की लाठियों के दम पर आवाज दबाने की सतही कोशिश, सीधे तौर पर प्रशासनिक विफलता, अकर्मण्यता, लापरवाही, अक्खड़पन, अधिकारियों की जिद व जिम्मेदारी से पलायन करने का मामला है.
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं का प्रदर्शन. |
विश्वविद्यालय परिसर के भीतर छात्राओं के साथ सरेराह छेड़खानी, भद्दी और लज्जाजनक टिप्पणियां-फब्तियां, कपड़े उतारने की घिनौनी हरकत रोजाना की बात हो गई है. छात्राओं की मांग इन्हीं सब हरकतों पर विश्वविद्यालय प्रशासन (प्रॉक्टर) और कुलपति जी.सी. त्रिपाठी से रोक लगाने की थी, जिसे हर किसी ने अनसुना कर दिया. न तो विश्वविद्यालय की सुरक्षा के लिए नियुक्त सुरक्षाकर्मियों ने छात्राओं को सुरक्षित होने का भरोसा दिलाया न विश्वविद्यालय के कुलपति ने इसे संजीदगी से लिया.
आंदोलनरत छात्राओं से मिलना तक मुनासिब नहीं समझा. मजबूरन छात्रों को सड़कों पर उतरना पड़ा. घंटों मुख्य द्वार पर धरने पर बैठना पड़ा और प्रशासन के खिलाफ आवाज बुलंद करनी पड़ी. लेकिन अगर छात्राओं की तकलीफ को निष्पक्ष नजरिये से देखें तो उनकी मांगें अराजक और राजनीति से प्रेरित कैसे हो गई?
बच्चों की बस तीन-चार ही तो मांग थी-छात्रावास में आने-जाने का मार्ग सुरक्षित हो और सुरक्षा अधिकारी की तैनाती हो; दूसरा छेड़छाड़ की घटना रोकने की गंभीरता से कवायद हो और आने-जाने वाले मागरे खासकर हॉस्टल वाले रास्तों पर सीसीटीवी से निगरानी हो, वगैरह-वगैरह. इन मांगों में अराजक और आपत्तिजनक क्या है? क्या विश्वविद्यालय इसी तरह से चलते हैं? और फिर बिना किसी जांच के कुलपति आंदोलनरत समूह के किसी दल से जुड़े होने के आरोप कैसे चस्पा सकते हैं? बजाय छात्राओं की मांगों का हल निकालने के.
जिस विश्वविद्यालय को उसके गरिमामयी इतिहास के तौर पर स्मरण किया जाता है, अगर वहां अपनी सुरक्षा के लिए मांग पत्र सौंपना और धरना देना अनुशासनहीनता है तो फिर कहने के लिए कुछ भी नहीं बचता है. ‘बेटियों के हाथों देश का भविष्य’ और ‘बेटी पढ़ाओ बेटी पढ़ाओ’ जसे नारे अब विश्वास बढ़ाने के बजाय डराते ज्यादा हैं.
बेहद अफसोसनाक बात यह भी कि हर छोटी-छोटी घटनाओं पर ‘चहचहाने’ वाले प्रधानमंत्री वहीं के सांसद होकर और उसी शहर में होकर निस्तेज और चुप्पी की चादर ओढ़े रहे.
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